________________
(६८०) चरकसंहिता-भा० टी०।
दर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग। रूपाणांभास्वतांदृष्टिविनश्यतिचदर्शनात् ॥१२१॥दर्शनाचातिसूक्ष्माणांसर्वशश्चाप्यदर्शनात्। द्विष्टभैरवबभित्सदूरातिक्कि'ष्टदर्शनात् । तामसानाञ्चरूपाणांमिथ्यासंयोगउच्यते॥१२२॥
अत्यन्त प्रकाशवान वस्तुओंको देखना,अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थोंका देखना,सर्वथा किसी वस्तुको भी न देखना, द्वेषयुक्त, भयानक बीभत्स पदार्थोंका देखना बहुत दुरसे बडी देरतक देखना और जिसके देखनेसे कष्ट हो उसको देखना,तथा तामसरूपोंका देखना यह सब दृष्टिका मिथ्यायोग कहाजाताहै ॥ १२१ ॥ १२२ ।।
रसनन्द्रियका मिथ्यायोग । अत्यदानमनादानमोकप्तात्म्यादिभिश्चयत् ।
रसानांविषमादानमल्पादानश्चदूषणम् ॥ १२३॥ रसविशेषोंको अत्यन्त ग्रहण करना, अथवा कोई रस भी बिलकुल ग्रहण न करना, विपरीततासे ग्रहण करना, या अत्यन्तही हीनतासे ग्रहण करना, अत्यंत तीक्ष्णरसोंका ग्रहण करना रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग कहाताहै । रसनेन्द्रियका मिथ्यायोग होनेसे जिह्वाकी शक्ति हीन होजातीहै ॥ १२३ ॥
घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग । अतिमद्वतितीक्ष्णानांगन्धानामुपसेवनम् ॥ १२४॥ असेवनं सर्वशश्चनाणेन्द्रियविनाशनम् । पूतिसूतविषद्विष्टागन्धाये
चाप्यनातवाः ॥, १२५ ॥ तैर्गन्धैाणसंयोगोमिथ्यायोगः । स उच्यते ॥ १२६ ॥ __ अति मृदु और अत्यन्त तीक्ष्ण गंधके सूंघनेसे या सर्वथा किसी गंधके न सूंघनेसे और दुर्गध तथा विषदूषित अथवा जो बुरी प्रतीत हो उस गंधके सूंघनेसे, और अकालमें प्रगटहुई गंधके संघनसे घ्राणेन्द्रियका मिथ्यायोग हानेसे घ्राणशक्ति हीन होजातीहै ॥ १२४ ॥ १२५ ॥ १२६ ॥ ..
असात्म्यके लक्षण ।। इत्यसात्म्यार्थसयोगस्त्रिविधोदोषकोपनः।
असात्म्यमितितद्विद्याद्यन्नयातिसहात्मताम् ॥ १२७॥ ... .इसप्रकार इन्द्रियोंका अयोग, अतियोग और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका असात्म्य संयोग होनेसे दोष कुपित होकर इन्द्रियोंको नष्ट करदेतेहैं । जो पदार्थ