________________
.
(६७८)
चरकसंहिता--भा० टी० गुण और तमोगुणसे उत्पन्न होते हैं उनका सेवन करना भद्रपुरुष इन सब कर्मीको प्रज्ञापराध कहते हैं प्रज्ञापराधही व्याधियोंके उत्पन्न करनेका हेतु है। योग्य विषयको विपरीत भावस समझना और अयोग्यको योग्य समझना इस प्रकार जो बुद्धिका दोष है उसीको प्रज्ञापराध कहतेहैं । वह प्रज्ञापराध मनके आधीन है. ॥ ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ १०७॥१०८।।
कालजनित रोग। . निर्दिष्टाकालसम्प्राप्तिाधीना हेतुसंग्रहे। चयप्रकोपशमाः पित्तादीनांयथापुरा ॥ १०९ ॥ मिथ्यातिहीनलिंगाश्चवर्षान्ता रोगहेतवः । जीर्णअक्तप्रजीणानकालाकालस्थितिश्चया॥११०॥ पूर्वमध्यापराह्नाश्चराव्यायामास्वयंश्चये। येषुकालेषुनियतायेरोगास्ते च कालजाः ॥ १११ ॥ अन्येशुष्कोद्वयमाहीतृतयिकचतुर्थको । स्वेस्वेकालेप्रवर्तन्तेकाले ह्यषांवलागमः ॥ ११२ ॥ एतेचान्येचयेकचित्कालजाविविधागदाः । अनागते चिकि.
स्यास्तेवलकालीविजानता ॥ ११३ ॥ जिसप्रकार काल सम्प्राप्ति तथा व्याधियोंके हेतु संग्रह (कियंतः शिरसाय अध्याय) में पित्त आदिकोंका चय, प्रकोप और प्रशमन पहिले कथनकर आयें हैं तथा शीत आदिक वर्षापर्यन्त ऋतुओंका-मिथ्यायोग, अतियोग, हीनयोग हानेसे रोग उत्पन्न होतेहैं । भोजनके जीर्ण होनेपर भोजनके समय, भोजनके पाककालमें दोषोंकी जिसप्रकार स्थिति होतीहै, पूर्वाड, मध्याह्न और अपराहमें इसी. प्रकार रात्रिके तीनोंभागोंमें और जिनकालेगमें जो रोग जिसप्रकार नियत है तथा जो जिसकालमें उत्पन्न होतेहैं एवम् इकतरा, ट्याहिक, तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर जिसप्रकार अपनेरकालमें आकर स्थित होतेहैं इन सबको कालजन्य व्याधिये कहतेहैं । बुद्धिमानू वैद्य इन व्याधियोंके प्रगट होनेके कालसे पहिलेही चिकित्सा द्वारा बल काल विचारकर उसका उपाय करे १०९॥२१०॥११॥११२॥११॥
स्वाभाविकरोगोंका वर्णन । . कालस्यपरिणामेनजरामृत्युनिमित्तजाः।
रोगा:स्वाभाविकांदृष्टाःस्वभावोनिष्प्रतिक्रियः॥ ११४॥ कालके परिणामसे बुढापे और मृत्युके निमित्तसे.जो रोग उत्पन्न होतेहैं.उनको स्वाभाविकरोग कहतेहैं । स्वाभाविकरोगोंकी कोई चिकित्सा नहीं है ॥ ११४ ॥