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शारीरस्थान-अ० १. निर्दिष्टंदैवशब्देनकर्मयत्पौर्वदेहिकम् ।
हेतुस्तदपिकालेनरोगाणामुपलभ्यते ॥ ११५॥ पूर्वजन्मके कियेहुए कर्माको दैव अथवा प्रारब्ध कहतेहैं । वह देव भी काल पाकर रोगोंका कारण प्रतीत होताहै ॥ ११५ ॥
कर्मजरोगोंकी शान्ति । नहिकर्ममहत्किञ्चित्फलंयस्यनभुज्यते।
क्रियानाकर्मजारोगाःप्रशमंयान्तितरक्षयात् ॥ ११६ ॥. ऐसा कोईभी सूक्ष्मसे सूक्ष्म और महानसे महान् कर्म नहीं है जिसका फल ना भोगना पडता हो । वह कर्मसे उत्पन्न हुए रोग क्रिया अथवा प्रायश्चित्त करने शान्त होजातेहैं ॥ ११६ ॥
अवणेन्द्रियका मिथ्यायोग। अत्युपशब्दश्रवणाच्छ्रवणात्सर्वशोनच । शब्दानाञ्चातिहीनानांभवन्तिश्रवणाज्जडा॥११७॥परुषोद्भीषणाशस्ताप्रियव्यस.
नसूचकैः । शब्दैःश्रवणसंयोगोमिथ्यायोगःसउच्यते ॥११॥ • अत्यन्त उग्र शब्द सुनना और बहुत कालपर्यन्त तीक्ष्ण आवाजका सुनतेरहना श्रवणेन्द्रियका अतियोग है ।सर्वथा न सुनना अथवा अत्यन्त हीन शब्दोंका सुनना यह श्रवणेन्द्रियका अयोग है । कठोर शब्द, निंदित शब्द, अप्रिय शब्द और विपत्तिके याद दिलानेवाले शब्दोंका सुनना श्रवणेन्द्रियका मिथ्यायोग है । इन बीनों योगोंके संयोगसे श्रवणेन्द्रियमें जडता उत्पन्न होती है ॥ ११७ ॥ १९८७
त्वगिन्द्रियका मिथ्यायोग। असंस्पशोऽतिसंस्पर्शोहीनसंस्पर्शएवच स्पृश्यानांसंग्रहेणातः स्पर्शनेन्द्रियबाधकः ॥ ११९॥योमूतविश्वातानामकालेनागतश्चयः । स्नेहशीतोष्णसंस्पशॉमिथ्यायोगः सउच्यते ॥ १२० ॥ किसी वस्तुका भी स्पर्श न करना, अत्यंत स्पर्श करना,बहुत हीन स्पर्श करना भूतसंस्पर्श होना, विषसंस्पर्श, तीक्ष्णवायुका संस्पर्श, वेसमपके स्नेह, शीत और 'उष्णका संस्पर्श मिथ्यायोग कहाजाताहै । स्पर्शनेन्द्रियका मिथ्यायोग होने स्पर्शशाक्त हीन होजातीहै ॥ ११९ ॥ १२० ।