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शारीरस्थान - अ० १.
(६७१)
: काइयक्ततांयातिव्यक्तादव्यक्ततांपुनः । रजस्तमोभ्यामाविष्ट - चक्रवत्परिवर्त्तते ॥ ६७ ॥
अव्यक्त प्रकृतिते बुद्धि, बुद्धिसे महंकार, अहंकारसे पंच तन्मात्रा, और मन
इन्द्रियोंकी क्रमपूर्वक उत्पत्ति होती है । उसके उपरान्त संपूर्ण सर्वांग पुरुष राशि उत्पन्न होती है । इस चतुर्विंशतितत्त्वों के पुतलेसे कर्माधीन अनादि काल से मिलाहुआ चैतन्य आत्मा पुरुष कहा जाता है । यह पुरुष प्रलय समयमें इच्छित वस्तुओंसे पृथक् होजाता है फिर इसी प्रकार अव्यक्तसे व्यक्तभावको और व्यक्तसे अव्यक्तताको पुनःपुनः प्राप्त होता रहता है, यह पुरुष रजोगुण और तमोगुणसे आवेष्टित हुआ चक्के समान घूमता रहता है ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ येषांद्वन्द्वेपरासक्तिरहङ्कारपराश्चय ।
उदयप्रलयौ तेषां तेषां येत्वतोऽन्यथा ॥ ६८ ॥
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जिन मनुष्यों की द्वन्द्वमें परम शक्ति है अर्थात् रजोगुण और तमोगुणते आवे - 'ष्टिंत होकर द्वेष, काम, अहंकार आदिमें चित्तवृत्ति लगी रहती है वह मनुष्य ५ वारंवार जन्म लेते हैं और मरते हैं परन्तु इनसे विपरीत अर्थात् सतोगुणवाले मनुयोंको ज्ञान प्राप्त होनेसे इस जन्म मरण के चक्रमें नहीं आना पडता ॥ ६८ ॥ - जीवनमरणके लक्षण | प्राणापानौनिमेषाद्या जीवनंमनसोगतिः । इन्द्रियान्तरसञ्चाराप्रेरणंधारणञ्चयत् ॥ ६९ ॥ देशान्तरगतिःस्वप्नेपञ्चत्वग्रहणं तथा । दृष्टस्य दक्षिणेनाक्ष्णासव्येनापगमस्तथा ॥ ७० ॥ इच्छाद्वेषः सुखं दुःखं यत्नश्चेतनाधृतिः । बुद्धिः स्मृतिरहङ्कारो लिंगानिपरमात्मनः ॥ ७१ ॥ यस्मात्समुपलभ्यते लिंगान्येतानिजीवतः । नमृतस्यात्मलिंगा नितस्मादाहुर्महर्षयः॥७२॥ शरीरहिगते नास्मिञ्छून्यागारमचेतनम् । पञ्चभूतावशेषत्वात्पञ्चत्वंगतमुच्यते ॥ ७३ ॥
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श्वास लेना और छोडना, आंखका झपकना, जीवन, मनकी गति, एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रिय सञ्चार करना इन्द्रियोंका इधरउधर प्रेरण करना, देशांतर आदिकमें गमन करना, स्वमें अनेक प्रकारका ज्ञान होना, पंचभूतोंके तत्वोंको जानना दक्षिण ने देखे हुए पदार्थको वामनेत्र से पहिचानलेना, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख
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