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चरकसंहिता - भा० टी० ।
- होता है । इसीलिये जिसका कारण नहीं उसको अनित्य मानना सर्वथा भूल है । उत्पन्न नहीं होता । वह नित्य आत्मा अव्यक्त अन्यथा अर्थात् राशिरूप पुरुष अनित्य और
नित्य पदार्थ किसी अन्य पदार्थ से और अचित्य है । उससे अगट है ॥ ५८ ॥ ५९ ॥
आत्माका वर्णन |
अव्यक्तमात्माक्षेत्रज्ञः शाश्वतोविभुरव्ययः । तस्माद्यदन्यत्तद्वयक्तंवक्ष्यतचापरंद्वयम् ॥ ६० ॥ व्यक्तञ्चेन्द्रियकञ्चैव गृह्यते. तद्यदिन्द्रियेः । अतोऽन्यत्पुनरव्य कलिङ्गग्राह्यम तान्द्रियम् ॥ ६१॥ आत्मा अव्यक्त, क्षेत्रज्ञ, नित्य, विभु और अव्यय है । उससे विपरीत जो है - वह व्यक्त प्रकट कहा जाता है | व्यक्त पदार्थ इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा अव्यक्त अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होसकता । जो पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्रहण न किया जाकर केवल लक्षणों द्वारा जाना जाय उसको अतीन्द्रिय तथा अव्यक्त कहते हैं ॥ ६० ॥ ६१ ॥
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प्रकृतियों आर क्षेत्रज्ञका वर्णन | खादीनिबुद्धिव्य तमहङ्कारस्तथाष्टमः । भूतप्रकृतिरुद्दिष्टावि'काराश्चैवषोडश ॥ ६२ ॥ बुद्धीन्द्रियाणिपञ्चैवपञ्चकर्मेन्द्रिया - णिच । समनस्काश्चपञ्चार्थाविकाराइतिसंज्ञिताः ॥ ६३ ॥ इतिक्षेत्रसमुद्दिष्टं सर्वमव्यक्तवर्जितम् । अव्यक्तमस्यक्षेत्रस्यक्षेत्रज्ञमृषयोविदुः ॥ ६४ H -
आकाशादि पंचतन्मात्रा ( परमाणुरूप महाभूत ) महत् तत्त्वं, बुद्धि, मूल प्रकृति और अहंकार यह आठ भूत प्रकृति कहेजातहैं । मन, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच -कर्मेन्द्रिय और पांचमहाभूत इनको सोलह विकार कहते हैं क्योंकि यह आठ प्रकृपति कार्य हैं उनसे विकार भावको प्राप्त होकर उत्पन्न हुए हैं इसलिये उनको विकार कहते हैं । अव्यक्तको छोड़कर अन्य सवको क्षेत्र कहते हैं और ऋषिलोग - अव्यक्त आत्माको इस क्षेत्रको जाननेवाला ( क्षेत्रज्ञ ) कहते हैं ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ पुरुषका वर्णन ।.
जायते बुद्धिरव्यक्ताद्बुद्ध्यामिति मन्यते । परंखादीन्यहंकार 'उपादत्तेयथाक्रमम् ॥ ६५ ॥ ततःसम्पूर्ण सवांगोजातोऽभ्युदि'तउच्यते । पुरुषः प्रलये चेष्टैः पुनर्भावैर्नियुज्यते ॥ ६६ ॥ अव्य