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चरकसंहिता - भा० टी० ।
इसलिये न कोई करता है और न कोई फल भोग ताहै और न कोई आत्मा है ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
कारणानन्यतादृष्टाकर्त्तुः कर्त्तासएवतु । कर्त्ताहिकरणेर्युक्तः कारणसर्वकर्मणाम् ॥ ४८ ॥ निमेषकालाद्भावानां कालःशीतरोऽत्यये । भग्नानांचपुनर्भावः कर्तनान्यमुपैति ॥ ४९ ॥
आत्मवादी कहते हैं कि कर्त्ताही करणोंकी सहायतासे' कर्मको करता है क्योंकि शारीरके किये हुए कर्मो का फल कर्ता अर्थात् आत्माही भोगता है। देखने में भी आता है कि परोपकारतादि जितने काम किये जाते हैं सबको आत्माही भोगता है। जिस शरी- जो कार्य किया जाता है वह शरीर विनाशको प्राप्त होता तथा होसकता है परन्तु - करनेवाला आत्मा वही रहता है । वह कर्त्ताही अपने करणोंसे युक्तदुआ संपूर्ण कायको करता है । निमिषमात्रमें शरीरादि संपूर्ण भाव शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और उन नष्टहुए शरीर आदि भावोंका पुनर्भाव नहीं होता। जो कर्म किया जाता है उसका फल दूसरा नहीं भोग सकता वह कर्त्ताही कर्मों के फलको भोगनेवाला है । क्योंकि यदि ऐसा न हो तो जिस शरीरसे यज्ञादि किये जाते हैं वह तो इसी लोकमें नष्ट होजा
फिर उसके किये कमोंको भोगनेवाला कौन मानाजायगा । इसलिये आत्मा- कोही कर्ता और कर्मका फल भोगनेवाला मानना चाहिये ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ मततत्त्वविदामेतद्यस्मात्कर्त्तासकारणम् । क्रियोपभोगेभूतानांनित्यः पुरुषसंज्ञकः ॥ ५० ॥ अहङ्कारः फलंकर्मदेहान्तरगतिः स्मृतिः । विद्यते सतिभूतानां कारणदेहमन्तरा ॥ ५१ ॥
रावके जाननेवाले इसप्रकार कहते हैं कि जिसलिये आत्मा कर्चा है इसीलिंब इसको कारण कहते हैं । वह कारण आत्माही मनुष्योंके कियेहुए कमाको भोगनेबाला है, और नित्य है तथा उसीको पुरुष कहतेहैं । अहंकार, कर्मफल, पुनर्जन्म और स्मृति तथा अन्य धर्माधर्म यह सब मनुष्यों के उस कारणरूप अन्तरात्मामेंही अवस्थित हैं देहमें नहीं ॥ ५० ॥ ५१ ॥
प्रभवोनह्यनादित्वाद्विद्यतेपरमात्मनः ।
पुरुषोराशिसंज्ञस्तुमाहेच्छाद्वेष कर्मजः ॥ ५२ ॥
वह परम आत्मा अनादि है इसलिये उसको करनेवाला कारण कोई नहीं । परन्तु चौबीस तत्वकी राशिभूत जो पुरुष है वह मोह इच्छा और द्वेषजनित कमसे उत्पन्न होताहे ॥ ५२ ॥