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शारीरस्थान-अ० १. (६६९) आत्मज्ञःकरणैयोंगाज्ज्ञानंतस्यप्रवर्तते । करणानामवैमल्या. दयोगाद्वानवर्त्तते ॥ ५३॥ पश्यताऽपियथादर्शसंक्लिष्टेनास्तिदर्शनम् । तद्वज्जलेवाकलुषेचेतस्युपहतेतथा ॥ ५४॥
आत्मा अज्ञ नहीं है अर्थात् ज्ञानवान् है । करणोंके संयोगसे इसको ज्ञान उत्पन्न होताहै । वह करण, मन, बुद्धि और ज्ञानेंद्रियोंको कहतेहैं । इन करणों के निर्मल न होनेसे तथा इनका अयोग होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जैसे दर्पणमें धूल जमरिहनसे प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता,काई आदि जमीरहनेसेजलमें कुछ दिखाई. नहीं देता। उसी प्रकार मन आदि करणोंके मलयुक्त होनेसे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता ॥ ५३ ॥५४॥
करणाके नाम और कर्म । करणानिमनोबुद्धिर्बुद्धिकौन्द्रियाणिच ।
कर्तुःसयोगकर्मवेदनाबुदिरेवच ॥ ५५॥ मन, बुद्धि और बुद्धीन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय इन सवको करण कहतेहैं । कर्ताके. साथ करणका संयोग होनेसे कर्म, दुःख और ज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं ॥१५॥.
नैकाप्रवर्ततेकर्तुभूतात्मानाश्नुतेफलम्। संयोगाद्वचैतेसर्वत- . मृतेनास्तिार्कचन ॥ ५६ ॥ नोकोवर्ततेभावोवर्ततेनाप्यहेतुकः। शीघ्रगत्वात्स्वभावातुभावोनव्यतिवर्तते ॥ ५७ ॥ मात्मा अकेलाही किसी कर्ममें प्रवृत्त नहीं होता और न मकेला होनेपर फल भोगता है । सबका संयोग होनेसेही सब कुछ करता है और करणादिकोका संयोग नं हानेसे कुछ नहीं करता । इसी प्रकार पंचभूतादिभाव भी अकेले कुछ नहीं करते.
और न विना हेतु कुछ कर सकतेहैं अथवा यो कहिये किआकाशादिभाव अकेले होनसे कुछ कर नहीं सकते और कार्य विना हेतुके नहीं होता । भाव शीघ्रगामी स्वभाववाला होनेसे अपने क्रमका उलंघन नहीं कर सकता ॥ ५६ ॥५७॥.. .
अनादिःपुरुषानित्याविपरतिस्तुहेतुजः। सदाकारणवन्नित्यंदृष्टं हेतुमदन्यथा ॥ ५८॥ तदेवभावादग्राह्यनित्यत्वान्नकुतश्चन |
भावाज्ज्ञेयंतदव्यक्तमचिन्त्यव्यक्तसन्यथा ॥ ५९॥ 'अनादि पुरुष नित्य है । जो किसी हेतुसे उत्पन्न होताहै वह अनित्य होता है । और कारणरहित पदार्थ नित्य देखनेमें आताहै । हेतुओंसे उत्पन्न हुआ अनिक