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शारीरस्थान-१० १.
(६७५) जिस जलकी बाढने पहिले खेतीको नष्टकर डालाथा वह फिर आकर खेतीको नष्ट न करदेवे उसके बचावके लिये खेतकी रक्षाकारक सेतु आदि वना रखना अथवा नदीक वेगको देखकर खेतीके नष्टताका अनुमान करके वाढआनेसे पाहिले -रक्षाका प्रबंध करलेना,जिसप्रकार भविष्यत् हानिकी रक्षाका उपाय है उसीप्रकार. विकारोंके पूर्वरूपको देखकर उनके प्रकट होनेके पहिले क्रिया करना अनागतव्याधि. अर्थात् भविष्यव्याधिको चिकित्सा कहीजातीहै ॥ ८९ ॥ ९० ॥
वर्तमान व्याधिको चिकित्सा । पारम्पानुवन्धस्तुदुःखानांविनिवर्तते । सुखहेतूपचारेणसुसञ्चापिप्रवर्तते ॥ ९१ ॥नलमायान्तिवैषम्यंविषमाःसमतां नच । हेतुभिःसहशानित्यंजायन्तेदेहधातवः ॥ ९२ ॥ वर्तमान व्याधिको चिकित्सा कोई आक्षेप नहीं होसकता क्योंकि रोगका 'परस्परासे जोअनुवंध चलाआताहै अर्थात क्रमपूर्वक क्षणक्षणमें रोग जो कष्ट आदि देरहाहै वह चिकित्साद्वारा निवृत्त होनेसे रोगीको सुख प्राप्त होताहै और सुखके लियेही चिकित्साकी प्रवृत्ति है तथा समधातुयें विषमताको प्राप्त नहीं होती और -संपूर्ण धातुयें सम भी नहीं होती क्योंकिजैसे हेतुओं का संयोग होताहै वैसी शरीरकी 'धातुयें होतीजातीहैं।इसलिये धातुओंकी अवस्थाका ध्यान रखतेहुए संपूर्ण औषधी तथा आहारादिकोंका प्रयोग वर्तमान व्याधिकी चिकित्सा कहीजातीहै ९१॥९॥
युक्तिमतांपुरस्कृत्यत्रिकालांवेदनांभिषक् ।
हन्तीत्युक्त्वाचिकित्सासानैष्ठिकीयाविनोपधाम् ॥ ९३॥ वैद्य इस युक्तिका आश्रय लेकर तीनोंकालकी व्याधियोंको नष्ट कर सकताहै ।। इस चिकित्साकोही नैष्ठिकी अर्थात् रोगनाशनी चिकित्सा कहतेहैं जो विना अनु:: चित लोभसे कीजाती है ॥ ९३ ॥
उपधाहिपरोहेतर्दुःखदुःखाश्रयप्रदः। त्यागःसर्वोपधानाञ्चस-: . वैदुःखव्यपोहकः ॥ ९४ ॥ कोषकारोयथााशूनुपादत्तेवधप्रदान । उपादचेतथार्थेभ्यस्तृष्णामज्ञःसदातुरः॥९५॥ यस्त्वनिकल्पानीझोज्ञात्वातेभ्योनिवर्तते । अनारम्भादसंयोगातंदुश्खनोपतिष्ठते ॥ १६॥ जिस चिकित्सामें किसीप्रकारका लोभ, आदिक उपाधि न हो वह चिकित्सा मुखदायक होतीहै । क्योंकि उपाधिही दुखका कारण है . । सबमकारकी उपाधि