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चरकसंहिता-भा० टी०। खादिकोंको अथवा पीडाको दूसरा आत्मा नहीं जानसकता । पुरुष (आत्मा) - का जिस स्थानतक संयोग होता है वहांतककी पीडाको जान सकताहै । इसलिये शरीरमें होनेवाली पीडाको तथा ज्ञानद्वारा जहांतक गति है वहांतक जानसक है ॥ ८३ ॥ ८४ ॥
अतीतरोगकी चिकित्सा। चिकित्सतिभिषक्सस्त्रिकालावेदनाइति ।
ययायुक्त्यावदन्त्येकेसायुक्तिरुपधार्यताम् ॥ ८५ ॥ चिकित्सक भूत,भविष्य और वर्तमान इन तीनों प्रकारकी व्याधियोंकी चिकिसा कर सकता है। इनकी चिकित्सा करनेकी जिस युक्तिको आचार्योने कथन किया है उसको तुम श्रवण करो। ८५ ॥
पुनस्तच्छिरसःशूलंज्वरःसपुनरागतः। पुनःसकालोबलवांश्छ. दिसापुनरागता॥ ८६ ॥ एभिःप्रपन्नर्वचनैरतीतागमनंमतम्।
कालश्चायमतीतानामातीनांपुनरागतः ॥ ८७ ॥ तमर्तिका- . लमुद्दिश्यलेषजंयत्प्रयुज्यते। अतीतानांप्रशमनंवेदनानांतदु. च्यते ॥ ८८ ॥ शिरकी पीडाका एकवार शान्त होकर उसी प्रकार फिर प्रगट होजाना बथा ज्वर, खांसी और वमनका एकवार शान्त होकर फिर . उसी प्रकार प्रगट होजाना । अतीतागमन कहाजाता है । अतीत(भूतकालकी) व्याधिये फिर पहिलेकी समान आकर उपस्थित होजातीहैं । इस लिये उनका दौरा होनेसे प्रथम उनके अतीतकालके लक्षणोंको विचारकर औषथीका प्रयोग करना अतीतव्याधियोंकी चिकित्सा कही जातीहै।जैसे नित्य दोपहरके समय किसीके शिग्में पीडा होतीहो और सायंकालमें शान्त होजाय उस शान्तावस्थामें चिकित्सा करते समय जो पीडा व्यतीत होचुकीहै उसकाही लक्ष्य रखकर औषध प्रयोग कियाजाताहै । इसीमकार चातुर्थिकज्वर आदिमें जानना चाहिये इसको अतीतव्याधिको चिकित्सा कहतेहैं ।। ८६ ॥ ८७.॥ ८८.. .
भविष्यत्गेगकी चिकित्सा। आपस्ताःपुनरागुर्यायाभिःशस्यपुराहतम् । तथाप्रक्रियतेसेतुः प्रतिकर्मतथाश्रयेत् ॥ ८९ ॥ पूर्वरूपंविकाराणांदृष्ट्राप्रादुर्भविष्यताम् । याक्रियात्रियतसाचवेदनांहन्त्यनागताम् ॥ ९०॥ .