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चरकसंहिता - भा० टी० १
आगन्तुकउन्माद के लक्षण । यस्तुदोषनिमित्तेभ्यउन्मादेभ्यः समुत्थान पूर्व रूप लिङ्गवेदनोपशयविशेषसमन्वितोभवतिउन्मादस्तमागन्तुमाचक्षते ॥ ११ ॥ जिस उन्माद रोग में वातादि दोषोंके लक्षणोंसे अन्य प्रकारके कारण, पूर्वरूए और रूप मिलते हों उसको आगन्तुज उन्मादरोग जानना ॥ ११ ॥ आगन्तु उन्मादकी उत्पत्तिमें भिन्नमत ।
केचित्पुनः पूर्वकृतं कर्मा प्रशस्तामिच्छन्ति । तस्यनिमित्तंप्रज्ञापराधएवेतिभगवान् पुनर्वसुरात्रेय उवाच ॥ १२ ॥ प्रज्ञापराधाद्धिअयंदेवर्षिपितृगन्धर्वयक्षराक्षस पिशाच गुरुवृद्धसिद्धाचार्य्यपूज्यानवमत्याहितानिआचरतिअन्यद्वाकिञ्चित् कर्मा प्रशस्त
मारभते ॥ १३ ॥
कोई कहते हैं कि : पूर्वजन्म के किये हुए पापही मनुष्यके उन्माद रोग के कारण होते हैं । भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि हे अग्निवेश ! उन्मादरोग के उत्पन्न होने में बुद्धका ही दोष है क्योंकि बुद्धिका दोष ही संसारमें देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, पिशाच गुरु, वृद्ध, सिद्ध, आचार्य और पूज्योंका अपमान कराकर उनसे अहित आचरण कराता है तथा अन्य भी जो कुछ निंदनीय कर्म हैं उनके करानेवाला होता है ॥ १२ ॥ १३ ॥
आगन्तु उन्माद के पूर्वरूप । तमात्मनोपहतमुपघ्नन्तोदेवाः कुर्वन्त्युन्मत्तम् । तत्रदेवादिप्रकोपनिमित्तेनागन्तुकोन्मादेन पुरस्कृत स्यइमानि पूर्वरूपाणि तिद्यथादेवगोब्राह्मणतपस्विनांहिंसारुचित्वं कोपनत्वंनृशंसाभिप्रायताअरतिरोजोवर्णच्छायाबलवपुषाञ्चोपतातः । स्वचदेवा - दिभिरभिभर्त्सनंप्रवर्त्तनञ्चेतिआगन्तुनिमित्तस्यउन्माद स्यपूर्वरूपाणि भवन्तिततोऽनन्तरमुन्मादाभिनिवृत्तिः ॥ १४ ॥
इसलिये क्रोधितहुए देवता उस हतबुद्धि मनुष्यके शरीर में उन्मादरोगको उत्पन्नकरते हैं । सो उस देवादि प्रकोप से उत्पन्न हुए उन्माद रोग के यह पूर्वरूप होतेहैं जिसे देवता, गौ, ब्राह्मण, तपस्वी इनको मारनेकी इच्छा होना, तथा इनमें रुचि होना, एवम् इनपर क्रोध होना और निदनीय लज्जारहित कमाँके करने की इच्छा होना,