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निदानस्थान • अ०८.
( ४९५ )
पूर्व केवलारोगाः पञ्चाद्धेत्वर्थकारिणः । उभयार्थकरादृष्टास्तथैवैकार्थकारिणः॥१८॥ कश्चिद्धिरोगोरोगस्य हेतुर्भूत्वाप्रशाम्यति । .-नप्रशाम्यति चाप्यन्यो हेतुत्वं कुरुतेऽपिच ॥ १९ ॥
वह रोग पहिले तो स्वयं रोग होते हैं फिर दूसरे रोगोंको उत्पन्न करनेके कारण बन जाते हैं। कोई रोग आप भी रहता है तथा दूसरे रोगको भी उत्पन्न कर देता है । कोई रोग एक ही अर्थके करनेवाला रहता है । जैसे कोई रोग दूसरे रोगको उत्पन्न करके स्वयम शान्त होजाता है और कोई रोग स्वयं भी रहता है तथा दूसरेको भी उत्पन्न कर लेता है ॥ १८ ॥ १९ ॥
एवंकृच्छ्रतमानृणांदृश्यन्तेव्याधिसंकराः । प्रयोगापरिशुद्धत्वात् तथाचान्योन्यसम्भवात् ॥ २० ॥ प्रयोगः शमयेद्वयार्धियोऽन्यमन्यमुदीरयेत् । नासौविशुद्धः शुद्धस्तुशमयेधोनको'पयेत् ॥ २१ ॥
-इस प्रकार मनुष्योंको कष्ट देनेवाले रोगोंका व्याधिसंकर अर्थात् व्याधियोंका "मिलना जुलना होनेसे व्याधियें कष्टसाध्य होजाती हैं । एक रोगकी चिकित्सा करते -समय दूसरे रोगका उत्पन्न होजाना इसमें चिकित्सा के प्रयोगकी अविशुद्धता रोगका - कारण होती है । जो औषधी प्रयोग एक रोगको शान्त करे और दूसरेको उत्पन्न करे उसको विशुद्धचिकित्सा नहीं कहते । जो चिकित्सा रोगको शान्त करे तथा अन्य व्याधियों को भी होने न देवे उसको शुद्ध चिकित्सा कहते हैं ॥ २० ॥ २१ ॥ रोगों हेतुओं का वर्णन |
एको हेतुरनेकस्य तथैकस्यैकएव हि । व्याधेरेकस्यचाने का बहूनां बहवोऽपिच ॥ २२ ॥
कहीं कहीं एकही कारण बहुतसे रोगोंको उत्पन्न करता है । कहीं एक कारण एकीको उत्पन्न करता है । कहीं एक व्याधिके अनेक कारण होते हैं और कहीं बहु५. तसी व्याधियों के बहुतसे कारण भी होते हैं ॥ २२ ॥ ज्वरभ्रमप्रलापाद्यादृश्यन्ते रूक्षहेतुजाः ।
रूक्षेणैकेन चाप्येको ज्वरएवोपजायते ॥ २३ ॥
जस ज्वर, भ्रम, प्रलाप आदिक यह सब रूक्षतासे उत्पन्न होते हैं । कहीं अकेली • रूक्षता से केवल ज्वर ही उत्पन्न होता है ॥ २३ ॥