________________
(५७४) चरकसंहिता-भा०टी०। इनका आकार और वर्ण विशेष सूक्ष्म, गोल तथा श्वेत लम्बा, ऊनके धागे समान होताहै । इनमें कोई बडे स्थूल, कोई वत्तीके समान आकारवाले तथा काले, पाल, नाले एवम् हर्णके होतेहैं, नाम इनके इस प्रकार हैं ककेरुक, मकेरुक, लेलिह्य, शालूवक और सौमुरादाप्रभाव अर्थात् कार्य इनका इस प्रकार है।मलका पतला होना, शरीरका कृश होना, कोष्टका कठोर होना और रोमहर्ष होना तथा जब यह गुदाके मुखपर आते हैं तो गुदामें सूई चुभनेकीसी पीडाऔर खुजलीको उत्पन्न करतहुए गदाके मुखमें व्यापक रहतेहैं। गुदासे बाहर निकलते समय सरसराहटसी उत्पन्न करतेहैं । यह पुरीषज कृमियोंके लक्षण हैं । १२ ॥ इत्येषश्लेष्मजानांपुरीपजानाञ्चक्रिमीणांसमुस्थानादिविशेपः। चिकित्सितन्तुखल्वेषालमासेनोपदिश्यपश्चाद्विस्तरेणोपदेक्ष्यते तत्रसर्वक्रिमीणासपकर्षणमेवादितःकार्य्यम् । ततः प्रकृतिविघातोऽनन्तरं निदानोक्तानांसावानामनुपसेवनमिति ॥ १३ ॥
इस प्रकार कफजनित और पुरीषजनित कृमियोंके निदान आदिकोंको कथन कियागयाहै। इनकी संक्षेपसे चिकित्साका कथन करके फिर विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे । सब प्रकारके कृमियों में कृमियोंको निकाल डालना मुख्य कार्य है । फिर कृमियोंको नाश करनेवाले द्रव्यों द्वारा कृमियोंका प्रकृति विधात अर्थात् कृमिना- . शक द्रव्योंद्वारा उनको नष्ट कर तदनन्तर कृमियोंको उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्याग देना चाहिये ॥ १३ ॥
क्रिमिचिकित्सा। तनापकर्षणंहस्तेनाभिपृश्यापनयनमुपकरणवतामुपकरणेन वा। स्थानगतानान्तक्रिमीणांभेषजेनापकर्षणन्यायतश्चतुर्वि 'धम् । तद्यथा, शिरोविरेचनंवमनविरेचनमास्थापनमित्यप
कर्षणविधिः ॥ १४ ॥ - अब कृमियोंके अपकर्षण अर्थात् निकालनेका क्रम कथन करतहैं । कृमियोंको हाथसे मसलकर अथवा पकडकर या किसी यंत्रद्वारा दवाकर निकाल देना अथवा चूर देनाचाहिये । जो कृमि आमाशय आदि तथा अन्य किसी भीतरी स्थान में हों उनको औषधी द्वारा निकाल देनाचाहिये । औषधी द्वारा कृमियोंको निकालनेक