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चरकसंहिता - भा० टी० ।
इत्येतेषडास्थापन स्कन्धारसतोऽनुविभज्यव्याख्याताः । तेभ्याभिषग्बुद्धिमान्परिसंख्यातमपियद्द्रव्यमयौगिकंमन्येत तद्पकर्षयेत् । यद्यच्चानुक्तमपियौगिकंवा मन्येततद्दद्यात् । वर्गमपिवर्गेणउपसंसृजेदेकमेकेनअनेकेन वायुक्ति प्रमाणीकृत्य । प्रचरणमिवभिक्षुकस्यबीजमिवकर्षकस्य सूत्र बुद्धिमतामल्पमपि अनल्पज्ञानाय भवति ॥ १६९ ॥
इस प्रकार रसभेदसे छः प्रकारके आस्थापनके स्कंधों को कथन किया है । इन ऊपर कहे हुए छः प्रकारके स्कंधोंमें जो द्रव्य कथन किये भी हों परन्तु आस्थापन - योगमें हानिकारक समझें उनको बुद्धिमान् वैद्य निकालडाले और जो कथन नहीं भी किये गये उनको यदि उचित समझे तो प्रयोग करे। बुद्धिपूर्वक विचार एकवर्गकें द्रव्योंको यदि उचित समझे तो उनमें से एक अथवा अनेक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें भी मिला सकता है । जैसे भिक्षा मांगनेवालेको एक मुष्टि चावलोंकी और वर्गाचके मालीको एक बीज भी उसके काम में वडा भारी लाभदायक होता है उसी प्रकार युक्ति और प्रमाणके आश्रित बुद्धिमान् वैद्यको वैद्यकका एक छोटासा सूत्र भी. डे ज्ञानको करनेवाला होता है ॥ १६९ ॥ तस्माद्बुद्धिमतामूहापोहवितर्का मन्दबुद्धेस्तुयथोक्तानु गमनमेव
श्रेयः॥ १७० ॥
इसलिये बुद्धिमान् वैद्यको विचारपूर्वक द्रव्य ग्रहण करना चाहिये। और मूर्ख वैद्य जितनी बातें सीखी हुई हैं उसके सिवाय अन्य किसी पदार्थसे कुछ लाभ नहीं उठा सकता ॥ १७० ॥
यथोक्तंहि मार्गमनुगच्छन्भिषक्संसाधयतिवाकार्य्यमनतिमहत्त्वादन तिह्रस्वत्वादुदाहरणस्येति ॥ १७१ ॥
जिस प्रकार यहां पर कथन किया है यह न बहुत विस्तारसे है और न अधिक संक्षेपसे कथन किया गया है। इसको उदाहरणमात्र जानकर बुद्धिमान् वैद्य कार्यकों सिद्ध करसकता है ॥ १७१ ॥
अनुवासन द्रव्य |
अतः परंमनुवासनद्रव्याणिअनुव्याख्यास्यन्ते । अनुवासनन्तु : स्नेहएव । स्नेहस्तुद्विविधः । स्थावरोजङ्गमात्मकश्चतत्रस्थाव
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