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शारीरस्थान-अ० १.
(६६१) यदि वह विभु है तो पर्वत और दीवार आदि उसकी दृष्टिको रोककर पदार्थको क्यों नहीं देखने देते। यदि वह क्षेत्रज्ञ है तो प्रथम क्षेत्र था, या यह पुरुष था। क्योंकि इस स्थानमें ज्ञेय विषय क्षेत्र है । सो ज्ञेय क्षेत्र-क्षेत्रज्ञसे पीछे उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि क्षेत्र प्रथम था तो क्षेत्रज्ञ नित्य नहीं हो सकता ॥६॥७॥
साक्षिभूतश्चकस्यायकर्ताह्यन्योनविद्यते।
स्यात्कथञ्चाविकारस्यविशेषोवेदनाकृतः॥८॥ जब अन्य कोई कर्ता नहीं है वो यह साक्षी किसका है। और यादि निर्विकार है तो इस निर्विकार पुरुषको अनेक प्रकारको पीडा कैसे होती है ।। ८॥
अथचार्तस्यभगवस्तिसृणांकांचिकित्सति । अतीतांवेदनांवद्योवर्तमानांभविष्यतीम् ॥ ९ ॥ भविप्यन्त्याअसंप्रानि-- रतीतायाअनागमः । साम्प्रतिक्याअपिस्थानंनास्त्यतैःसंशयोह्यतः ॥१०॥ हे भगवन् ! व्याधियोंके लक्षण क्षणक्षणमें पलटते रहते हैं और रोग तीन विमागोंमें (भूत, भविष्य, वर्तमान कालमें) विभक्त हैं । ऐसे स्थानमें रोगीकी किस अवस्थाका निश्चय कर चिकित्सा करनी चाहिये। क्योंकि भविष्यत् व्याधि तो उस समय है ही नहीं और भूतव्याधि व्यतीत हो चुकी है वह फिर नहीं सकती
और जो वर्तमान व्याधि है वह क्षणक्षणमें बदलती जाती है । इसलिये इन तीनों भकारकी व्याधियों में किसको स्थिरकर चिकित्सा करनी चाहिये । यह संशय उत्पन्न होता है ॥१॥१०॥ . कारणवेदनानांकिंकिमधिष्ठानमुच्यते ।
क्कचैतावेदनाः सर्वानिवृत्तियान्त्यशेषतः ॥ ११ ॥ हे प्रभो ! व्याधियोंका कारण क्या है । और अधिष्ठान किसको कहते हैं। यह सम्पूर्ण व्याधिय किस स्थानमें किस प्रकार सम्पूर्णरूपसे निवृत्त होतीहै।।११॥
सर्ववित्सर्वसन्न्यासीसर्वसंयोगनिःसृतः।
एंकःप्रशान्तोभूतात्माकैलि रुपलभ्यते ॥ १२॥ सर्वज्ञ, सम्पूर्णभावोंसे विरक्त और सर्वसंयोगवजित एक शान्तिपरायण जी: वात्मा किन लक्षणोंसे जानाजाता है ॥ १२ ॥
क्चइत्यग्निवेशस्यश्रुत्वामतिमतांवरः॥.. सर्वयथावत्प्रोवाचप्रशान्तात्मापुनर्वसुः ॥ १३॥..