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शारीरस्थान-अ० १. . चिन्त्यविचार्यमूह्यञ्चध्येयंसङ्कल्प्यमवच। . - यत्किञ्चिन्मनसोज्ञेयंतत्सर्वार्थसंज्ञकम् ॥ १८॥ . . ...
चिन्ता, विचार, तर्क,ध्यान और संकल्प तथा जाननेयोग्य जो कुछ वस्तु है सब अनका अर्थ (विषय) है ॥ १८ ॥
बुद्धिको प्रवृति। इन्द्रियाभिग्रहःकर्ममनसस्त्वस्यनिग्रहः ।
ऊहविचारश्चततःपरंखुदिःप्रवर्तते ॥ १९ ॥ 'झन्द्रियोंकी गति कराना और स्वयम् गमनशील रहना अथवा इन्द्रियोंके वेगको रोकना और अपनी अनिष्ट गतिको रोकना । यह मनके दो कर्म होते हैं। उहा'तर्क और विचार उत्पन्न हानेके अनन्तर बुद्धिकी प्रवृत्ति होती है ॥ १९ ॥
इन्द्रियेणेन्द्रियार्थोहिसमनस्केनगृह्यते। .
कल्प्यतेमनसाप्यूदगुणतोदोषतोयथा ॥ २०॥ इन्द्रियें अपने अर्थको मनकी सहायतासे ही ग्रहण करती हैं। और इन्द्रियों द्वारा अर्थज्ञान होनेके अनन्तर भी उसके गुण दोषको मनही कल्पना करताहै२०॥
जायतेविषयेतत्रयाबुद्धिनिश्चयात्मिका ।
व्यवस्यतेतयावक्तुंक वाबुद्धिपूर्वकम् ॥ २१॥ फिर उस विषयमें जिस प्रकारको निश्चयात्मिका बुद्धि होतीहै उसको उसः निश्चयात्मिका बुद्धिद्वारा कहनेको अथवा बुद्धिपूर्वक करनेको निश्चयं करताहै२१३.
ज्ञानेंद्रिय । एकैकाधिकयुक्तानिखादीनामिन्द्रियाणितु। ..
पञ्चकर्मानुमेयानियेभ्योबुद्धिःप्रवर्त्तते ॥ २२॥ . .. शब्दगुणवाला आकाश,शब्द और स्पर्शगुणवाला वायु, शब्द, स्पर्श और रूप गुणवाला अग्नि । शब्द, स्पर्श, रूप और रस गुणवाला जल । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध गुणवाली पृथ्वी होती है । इसप्रकार एकएक महाभूत एकएक गुण
चित्य-कतव्याकर्तव्यतया यचित्यते। विचार्यमुपपत्त्यनुपपचिभ्यां यदिभृश्यते ऊर्जा-यत्सम्भावनया जह्यते। ध्येयं-भावनाशांनविषयम् । सँकल्प्य-गुणवत्तया दोषवत्ता वाऽवधारणविषयम् । २ निर्विकल्पालोचनज्ञानमूह।। हेयोपादेयतया विकल्पनं विचारः। ३ बुद्धौ हि सर्वकरणव्यापा: रार्पणं भवति।