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(५८६) चरकसंहिता-भा० टी०।
वैद्य होनेकी इच्छावाला बुद्धिमान् मनुष्य प्रथम अपनी कार्यकी गुरुता,लघुता, कर्म,उसका फल तथा सहायता आदि संयोग देश और कालको विचारकर एवम् युक्ति अर्थात् अनुमानसे अपने पूर्वापरको विचारता हुआ इन संपूर्ण भावोंपर दृष्टि देकर जिस शास्त्रको पढना हो पहिले उसकी परीक्षा करे अर्थात् यह देखे कि यह ग्रंथ पढनेयोग्य है या नहीं क्योंकि वैद्यकके अनेक ग्रंथ वैद्यलोगोंके रचेहुए लोकमें प्रचलित हैं। उन सबमें जिस ग्रंथका लोकमें यश छाया हुआहो और योग्य पुरुष उसकी प्रशंसा करतेहों, जिसके पढनेसे वैद्यकका यथोचित ज्ञान प्राप्त होता हो, जिसमें अर्थ बहुत हों जो प्रामाणिक पुरुषोंका मानाहोय, उत्तम,मध्यम, अधम इन तीनों प्रकारके शिष्योंकी बुद्धिमें आसकता हो, पुनरुक्त दोषसे रहित हो, ऋषिप्रणीत हो, सूत्र, भाष्य, संग्रहक्रम विधिवत् बना हुआहो, अपने आधार हो अर्थात् उसमें ऐसी बातें न हों जिनको जाननेके लिये अन्य ग्रंथोंके देखनेकी आवश्यकता होतीहो, जिसमें भ्रष्टशब्द न हों तथा कठिन शब्द न हों, जिसका कथन स्पष्ट,और बहुत अर्थको बतानेवाला हो, जिसमें क्रमपूर्वक विषय चलताहो और अर्थ,तत्वका निश्चय ही मुख्य मानाहो,सब विषय संगत हों,शीघ्र वोधको करानेवाला हो एवम् लक्षण और उदाहरण देकर विषयको स्पष्टरूपसे वर्णन करता हो ऐसे ग्रंथको पढः नके लिये ग्रहण करना चाहिये। ऐसा शास्त्र सूर्यके समान अंधकारको दूर कर सक अर्थोंका अर्थात् अर्थ, धर्म, यश आदिकोंका प्रकाश करता है ॥ १॥ .
आचार्यकी परीक्षा । ततोऽनन्तरमाचार्यपरीक्षेत । तद्यथा-पर्यवदातश्रुतंपरिदृष्टकमाणंदक्षदक्षिणशुचिंजितहस्तमुपकरणवन्तंसन्द्रियोपपन्नं प्रकृतिज्ञंप्रतिपत्तिज्ञमनुपस्कृतविद्यमनहंकृतमनसूयकमकोपनं क्लेशक्षमंशिष्यवत्सलमध्यापकंज्ञापनासमर्थश्चइत्येवंगुणोह्याचार्य सुक्षेत्रमार्त्तवोमेघश्वशस्यगुणैःसुशिष्यमाशुवैद्यगुणैःसम्पादयति । तमुपसृत्यारिराधयिषुरुपचरेदभिवच्चदेववञ्चराजव. चपितृवच्चभर्तृवच्चाप्रमत्तस्ततस्तत्प्रसादात्कृत्स्नंशास्त्रमधिगम्य शास्त्रस्यदृढतायामाभिधानसौष्ठवस्यार्थस्यविज्ञानेवचनशक्ती
चभूयःप्रयतेतसम्यक् ॥ २॥ : इसके अनन्तर पढानेवाले आचार्यकी परीक्षा करना चाहिये । वह इस प्रकार है, जो वेदोंके अथवा आयुर्वेदके संपूर्ण रूपसे सर्वाशको जाननेवाला हो, जिसने