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(५९२) चरकसंहिता-भा० टी०।
यशHधन्यसत्यहितमितवचसादेशकालविचारिणास्मृतिमताज्ञानोत्थानोपकरणसंम्पत्सुनित्यंयत्नवता नचकदाचिद्राजद्विष्टानांराजद्वेषिणांवामहाजनद्विष्टानांमहाजनद्वेषिणांवाओषधमनुविधातव्यमाएवंसर्वेषामत्यर्थविकृतदुष्टदुःखशीलाचारोपचाराणामनपवादप्रतिकरादीनांमुमधूताश्चतथैवासन्निहितेश्वराणांस्त्रीणामनध्यक्षाणांवा ॥९॥ पहिले गुरुके लिये धन इकटा करनेमें यत्न करनाहोगा कर्मसिद्धि के लिये, अर्थ: सिद्धिके लिये,यश प्राप्त करनेके लिये,मरकर मोक्ष प्राप्तिके लिये इच्छा करनेवाला वैद्य पहिलेगौब्राह्मणोंको आदि लेकर संपूर्ण प्राणियों के कल्याण करने में यत्नवान् रहना। नित्यम्प्रति उठता बैठता संपूर्णरूपसे रोगियोंके आरोग्य करनमें यत्नवान रहना । अपने आजीवनके लिये भी रोगियोंको दिक्क कर द्रव्य प्राप्त न करना। मनसे भी परस्त्रीकी इच्छा न करना तथा किसी भी पराई वस्तुके लेनेकी इच्छा न करना । स्वच्छ, साधारण, उत्तम वेश धारण रखना, मद्य न पीना, पापी न बनना, पापरहित मनुष्योंके साथ रहना, पवित्र, उत्तम, धर्मात्माओंकी संगति करना, शरण आयेहुएकी रक्षा करना, धन्य, सत्य,हित और देश, काल विचार कर मितभाषण करना, देशकालसे विचारवान रहना, स्मृतिमान होकर ज्ञान साधन नकी सामग्रीको नित्य संग्रह करना और राजद्रोही तथा जिनसे राजा द्वेष करताहो, जो बडे पुरुषों के द्वेषी हों अथवा जिनसे बडे पुरुष द्वेष रखतेहों ऐसे पुरुषोंकों औषधि नहीं देना।इसी प्रकार सवका बुरा करनेवाले दुष्ट तथा खोटे आचारवालें. पुरुषोंको भी औषधि न देना एवम् जो स्वयं मरना चाहताहै, जिसको अपने अपवादका भय नहीं, जो कुपथ्यकारी है उनकी तथा जिन स्त्रियोंके पति, पुत्र आदि. कोई समीप न हों ऐसी अकेली स्त्रियोंकी चिकित्सा नहीं करना ॥९॥
नचकदाचित्वीदत्तमामिषमादातव्यमननुज्ञातंभनाअथवाअध्यक्षेण आतुरकुलश्चानुप्रविशतात्त्रयाविदितेनानुमतप्रवेशिनासा पुरुषेणसुसंवीतेनावाशिरसास्मृतिमतास्तिमितनअवेक्ष्यावेक्ष्यबुद्ध्यामनसासर्वमाचरतासम्यगनुप्रवेष्टव्यमाअनुप्रविश्यचवाङ्मनोबुद्धीन्द्रियाणिनक्कचित्प्रणिधातव्यानिअन्यत्रातुरोपकारार्थावाआतुरगतेष्वन्येषुवाभावेषु । नचातुरकु