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विमानस्थान-०८ लप्रवृत्तयोबहिर्निश्चारयितव्याः ।ह्वासितश्चायुषःप्रमाणमातु-., रस्यनवर्णयितव्यंजानतापिच । तत्रयत्रोच्यमानमातुरस्यअन्यस्यवाप्युपघातायसम्पद्यते । ज्ञानवतापिचनात्यर्थमात्म- " नोज्ञानेनविकथितव्यम् । आमादपिहि । आतादपिविकत्थमानादत्यर्थमुद्विजन्तिअनेके ॥ १०॥ याद कोई स्त्री अपने पति अथवा अध्यक्षकी आज्ञा विना आमिष अथवा कोई अन्य वस्तुएं देवे ता “लेना चाहिये । जब किसी रोगीको देखनेके लिये जावे तो जो मनुष्य उनके घरमें आनेजानेवाला हो उसके संगमें अथवा पहिले खबर वैद्यके आनेकी देकर जानकार पुरुषके साथ स्वच्छ वस्त्रोंको पहिनेहुए,सिरकों नीचा किये हुए, विना कुछ वोले स्मृतिमान होकर सावधान से पूर्वापरको विचारते हुए बुद्धि और मनसे उत्तम विधिका विचार करतेहुए नोगीके घरमें प्रवेश फरना। फिर घरमें जाकरभी अपने मन,वाणी, बुद्धि और इन्द्रियों को रोगीके उपकार तथा उसके निदान,कारणादि द्वारा रोगके सम्पूर्ण भावोंको जाननेमें लगावे। किन्तु अन्य उनके घरकी किसी वस्तु तथा स्त्री आदिकोंपर न तो दृष्टि डाले और न उनका विचारतक करे । रोगकि कुलके योग्य पुरुषोंको उसके समीपसे बाहर न निकाले।यदि देखे कि रोगीकी आयु बहुत कम शेष है अर्थात् मरजानेवालाहै तब भी अपने मुखसे न कहे क्योंकि इधर उधरसे अपने मरनकी बात सुनकर रोगी शघ्रि वडाकर मृत्युके.वश होजाताहै एवम् उनके कटुम्बी आदि सुनकर भी वडा भारी दुःख मानहैं ।स्वयं बुद्धिमान होते हुए भी और वैद्यकका योग्य ज्ञानी होते. हुए भी अपने मुखसे अपनी प्रशंसा न करे । यदि योग्य बुद्धिमान भी अपने मुखसे अपनी बडाई करने लगजाता है तो उसको सुनकर बहुतसे लोगोंको उसमें: अश्रद्धा उत्पन्न होजातीहै ॥ १० ॥ नचैवहिअस्तिआयुर्वेदस्यपारं, तस्मादप्रमत्तःशश्वदभियोगमस्मिन् गच्छेत् । तदेवकार्यमेवंभयश्चप्रवृत्तस्यसाठेवमनसूयतापरेयोऽप्यगमयितव्यम् ।कृत्स्नोहिलोकोबुद्धिमतामाचा
र्यः शत्रुश्चाबुद्धिमतामेतच्चाभिसमीक्ष्यबुद्धिमताआमित्रस्यापि धन्ययशस्यमायुष्यंपोष्टिकलौकिकमभ्युपदिशतोवचाश्रोतव्यमनुविधातव्यञ्चेति ॥ ११ ॥ . . .