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विमानस्थान- अ०४... (५९१), निर्मत्सरेणशास्त्रधारिणाभवितव्यम् । नचतेमद्वचनात्किञ्चिदकार्य्यस्यादन्यत्रराजद्विष्टात्प्राणहराद्विपुलादधादनर्थसंप्रयुक्ताद्वाप्यर्थात् ।मदर्पणेनमत्प्रधानेनमदधीनेनमत्प्रियहितानुवर्तिनाचशश्वद्भवितव्यम् । पुत्रवदासवदर्थिवच्चोपचरतानुसर्तव्योऽहम् । अनुत्सुकेनावाहितेनअनन्यमनसाविनातनावेक्ष्यावेक्ष्यकारिणाअनसूयकेनचाभ्यनुज्ञातेनप्रविचरितव्यम् अनुज्ञातेनचप्रविचरता ॥८॥ फिर शिष्यको अग्निके समर्माप, ब्राह्मणोंके समीप और वैद्योंके समीप बिठाकर इसप्रकार शिक्षा देवे कि हे शिष्य ! तुमको ब्रह्मचारी वनकर श्मश्रु धारणकर, सत्यवादी रहना होगा तथा निरामिषभोगी और पवित्र भोजन करना मत्सर (ईर्षा, देष) रहित और शास्त्रोंको धारण करना होगा, मेरी आज्ञासे बाहर किंचित् काम
भी नहीं करना । राजाका द्वेष,हिंसा,अधर्म,अनर्थ,अनर्थसे धन माप्त करना इनको - छोडकर और संपूर्ण काम मेरी आज्ञानुसार करना । मेरे आगे नम्रतापूर्वक हरएक काममें मुझे प्रधान मानताहुआ मेरे आधीन, और मेरी मियता, मेरा हित तथा मेरा अनुवर्ती वनकर निरन्तर रहनाचाहिये । जैसे पिताकी सेवा पुत्र करताहै, मालिककी सेवा नौकर करताहै, जैसे अर्थकी इच्छासे अर्थीपुरुष धनिककी आज्ञा पालन करता है उसी प्रकार संघ स्थानमें तुमको मेरा अनुसरण करनाहोगा। उत्सु. कतारहित होकर सावधानीसे अनन्यमन होकर विनीतभावसे हरएक कामको विचार विचारकर करतेहुए ईर्षा,अभिमान,निंदा आदिको त्यागकर भेरी आज्ञाके अनुसार सब काम करने होंगे । मेरी आज्ञा लेकर इधरउधर जानाहोगा ।। ८॥ ..
वैधको उपदेश । पूर्वगुर्वर्थोपाहरणेयथाशक्तिप्रयतितव्यम्। कर्मसिद्धिमर्थसिद्धि यशोलामञ्चप्रेत्यचसर्वमिच्छताभिषजा । गोब्राह्मणमादौ कृत्वासर्वप्राणभृतांशमण्याशासितव्यम्।अहरहरुत्तिष्ठलाचोपविशताचसर्वात्मनाचातुराणामारोग्येप्रयतिवव्यम् । जीवितहेतोरपिचातुरेभ्योनातिदोग्धव्यमामनसापिचपरस्त्रियोलाभिगमनीयाः । तथासर्वमेवपरस्वम्। निभृतवेशपारच्छेदेनचभवितव्यमः। अशौण्डेनअपापेनअपापसहायेनचश्लक्ष्णशुक्लध