________________
चरकसंहिता - भा० टी० । श्चभूमिदेशेमनुष्याणामिदमाहारजातमिदंविहारजातमेतद्दल
( ६२६ )
मेवंविधंसत्त्वमेवंविधंसात्म्यमेवंविधोदोष भक्तिरियमिमेव्याध - योहितमिदमहितमिदमितिप्रायोग्रहणेन ॥ १०४ ॥
देश - भूमिको और रोगी के शरीरको कहते हैं । उनमें भूमिकी परीक्षा करना आतुर के परिज्ञान के लिये और औषधके परिज्ञानके लिये होता है । उनमें भूमिकी 'परीक्षा और रोगीकी परिक्षा इस प्रकार करना । जैसे-यह किस भूमि अर्थात् किस देशमें उत्पन्न हुआ, किस देशमें वृद्धिको प्राप्त हुआ, किस देशमें रोगग्रस्त हुआ, जिस देशमें यह उत्पन्न हुआ और पला है उस देशके मनुष्यों का आहार, विहार और बल तथा सत्त्व एवम् सात्म्य किस प्रकार के होते हैं । उस देशमें दोष भेद इस प्रकार होतेहैं । इस प्रकार के पदार्थ इनको हितकर होते हैं, व्याधियें इस प्रकारकी होती हैं ये पदार्थ हितकर और अहितकर होते हैं। इसप्रकार रोग परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये ॥ १०४ ॥ औषधपरिज्ञानहेतोस्तुकल्पेषुभूमिपरीक्षावक्ष्यते ॥ १०५ ॥
औषध परिज्ञानके लिये भूमिकी परीक्षा करना चाहिये सो कल्पस्थान में कथन करेंगे ॥ १०५ ॥
रोगिपरीक्षा ।
आतुरस्तुखलुकादेशस्तस्य परीक्षा आयुषः प्रमाणज्ञानहेतोर्वां स्वाइलदोषप्रमाणज्ञानहेतोर्वा ॥ १०६ ॥
चिकित्साका देश - अर्थात् चिकित्सा कार्यकी भूमि रोगी कथन किया है सो उस - रोगीकी आयु, बल, दोषोंका प्रमाण आदिकी परीक्षा करना आतुरपरीक्षा है१०६ तत्रतावदियं बलदोषविशेषप्रमाणापेक्षासह साहिअतिबलमौषधमपरीक्षकंप्रयुक्त मल्पबलमातुरमभिघातयेत्, नह्यतिबलान्याग्नेय सौम्य वायवीयान्यौषधान्यग्निक्षारशस्त्रकर्माणि वा शक्यन्तेऽल्पबलैः सोढ मविषह्यातितीक्ष्णवेगत्वाद्धिसयः प्राणहराणिस्युः ॥ १०७ ॥
चिकित्सा - रोगी के बल तथा दोषविशेषके प्रमाणकी अपेक्षा रखती है । जब वैद्य अल्प बलवाले रोगीको बिनाही परीक्षा किये बलवान् औषधीका प्रयोग करता है तो उसके प्राणोंको नष्ट कर देता है । बलहीन रोगीको अतिबलवान्, अत्यंत उष्ण, अत्यंतशीतल तथा अत्यंत्तवातप्रधान औषध प्रयोग करना तथा जो रोगी सहन नहीं
1