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चरकसंहिता-भा० टी०॥ औषधका आचरण करना उपायका लक्षण होताहै । इन दश प्रकारके लक्षणोंकी परीक्षा करनेका प्रयोजन प्रतिपत्तिज्ञान है ॥ १५४ ॥
प्रतिपत्ति। . प्रतिपत्तिनामसयस्तुविकार यथाप्रतिपत्तव्यस्तस्यतथानुष्ठान
ज्ञानम् ॥ १५५ ॥ जो विकार जिस प्रकार जिस स्थान प्राप्त हो उसका उसी प्रकार ठीक समझकर यल करने के लिये प्रवृत्त होना प्रतिपत्ति कहाजाताहै ॥ १५ ॥
यत्रतुखलुवमानादीनांप्रवृत्तिर्यत्रचनिवृत्तिस्तव्यासतः सिद्धि . " पूचरकालमुपदेक्ष्यते । प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणसंयोगेतुखलुगुरु, लाघवंसंप्रधा>सम्यगध्यवस्येदन्यतरनिष्ठायाम् । संतिहिं व्याधयशास्त्रेणूत्लापवादैरुपक्रमंप्रतिनिर्दिष्टाः । तस्माद्गुरुः । लाघवसम्प्रधार्थसम्यगध्यवस्थेदित्युक्तम् ॥ १५६ ॥ . . जिस जिस स्थानमें वमन विरेचनका प्रयोग करना चाहिये और जिस स्थान । नहीं करनाचाहिये उन सबका वर्णन सिद्धिस्थानमें करेंगे । वमन विरेचनादिकोंकी प्रवृत्ति (प्रयोग करना) और निवृत्ति (प्रयोग न करने) के लक्षणके विषयमे गुरु और लाघवको विचारकर जिस जगह जिसकी आवश्यकता हो अर्थात जिस स्थानमें कराने हों और जिसमें न कराने हों या उनमेंसे केवल वमन ही या केवल विरेचन ही कराना हो और उनके करानमें लाभ है या हानि है उनको भले प्रकार विचार लेना चाहिये । क्योंकि शास्त्र में व्याधियोंकी सामान्य चिकित्सा और विशेष चिकित्सा इन दोनों प्रकारका वर्णन कियागया है। इसलिये उनके गुरु
और लाघवंको विचारकर और भले प्रकार निश्चय करके तब उनमें प्रवृच होना चाहिये। १९६ ॥
वमनद्रव्य। यानितुखलुवमनादिषुभेषजद्रव्याण्युपयोगंगच्छन्तितान्यानु-.
व्याख्यास्यन्ते । तद्यथा-फलजीमूतकेक्ष्वाकुधामागेवकुटज. काण्डिकाकृतवेधनफलानि । जीमूतकेक्ष्वाकुकुटजकृतवेधन:
पत्रपुष्पाणिाआरग्वधवृक्षकमदनस्वादुकण्टकपाठापाटलाशा ..."टामूसिवर्णनक्तमालपिचुमर्दपटोलसुषवीगुडूचीसोमद-: ..