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(६४०) चरकसंहिता-भा० टी०।
- ब्यायामशक्तिद्वारा परीक्षा । व्यायामशक्तितश्चेति। व्यायामशक्तिमपिकर्मशक्यापरीक्ष्याः कर्मशक्क्यायनुमीयतेबलं त्रिविधम् ॥ १३९ ॥ व्यायाम शक्तिद्वारा भी परीक्षा करनी चाहिये । कर्मशक्तिसे व्यायाम शक्तिकी परक्षिा हो सकती है । कर्मशक्तिसे ही मनुष्यके उत्तम मध्यम और होनबलकी. परीक्षा कीजासकती है ॥ १३९ ।।
अवस्थासे परीक्षा । वयस्तश्चेति । कालप्रमाणविशेषापक्षिणीहिशरीरावस्थावयोऽभिधीयते । तद्वयोयथावस्थानभेदेनत्रिविधंवालंमध्यंजीर्णमिति ॥ १४०॥ वय अर्थात् अवस्था विशेषकी भी परीक्षा करनी चाहिये।कालप्रमाणकी अपेक्षा करनेवाली जो शरीरकी अवस्था है उसको वय कहते हैं । वह वय स्थूल भेदसे बाल मध्य और जीर्ण अर्थात् वाल्यावस्था,तरुणावस्था और वृद्धावस्था इन तीन भेदों: वाली होती है ॥ १४० ॥
वाल आदि अवस्था। तत्रबालसपरिपक्वधातुगुणमजातव्यञ्जनसुकमारमक्लेशसहमसम्पूर्णबलं श्लेष्मधातुप्रायमाषोडशवर्षम् । विवर्द्धमानधातुगुणपुनःप्रायेणानवस्थितसत्त्वमात्रिंशद्वर्षमुपदिष्टम् ।मध्यं नः समर्थागतबलवीर्यपौरुषपराक्रसग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानसर्वधातुगुणं बलस्थितमवस्थितसत्त्वम्माविशीयमाणधातुगुणं पित्तधातुप्रायमाषष्टिवर्षमुद्दिष्टम्।अतः परं परिहीयमाणधात्विन्द्रियबलपौरुषपराक्रमग्रहणधारणस्मरणवचनविज्ञानंभ्रश्यमानधातुगुणंवातधातुप्रायंक्रमेणप्रजीर्णमुच्यते आवर्षशतम् ॥ १४१ ॥ उनमें बाल्यावस्थामें सब धातु विना पकी होतीहैं और मोछ, दाढी, आदि धातुओंके गुण प्रगट नहीं होते । शरीर सुकुमार,कष्ट सहनेके अयोग्य असंपूर्ण वल और कफ प्रधान होताहै । सोलह वर्ष पर्यन्त बाल्यावस्था होतीहै ॥ सोलह वर्षसेः तीसवर्ष पर्यन्त सम्पूर्ण धातुओंके वल और गुण बढते हैं और मन प्रायः अनव..