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चरकसंहिता-भा० टी०॥ हार, होम, नियम, प्रायश्चित्त,उपवास, स्वस्त्ययन, प्रणिपातन और देवयात्रा आदि दैवव्यपाश्रय औषध कहा जाता है । और संशोधन, संशमन तथा दृष्टफलकी चेष्टा आदिको युक्तिव्यपाश्रय औषध कहते हैं। वह औषध अंगभेदसे भी दो प्रकारकी होतीहै १ द्रव्यभूत । २ अद्रव्यभूत (उपायभूत) । उनमें-जो अद्रव्यभूत औषधी है वह उपाययुक्त होती है । जैसे-भय दिखाना विस्मापन, क्षोभण, हर्षण, भर्त्सन, प्रहार, बंधन, निद्रा और संवाहन आदि । यह सब प्रत्यक्षरूपसे चिकित्साकी सिद्धिके उपाय हैं । जो द्रव्यभूत हैं उनका वमनादि कार्यों में उपयोग किया जाता है ॥ ९८॥
औषधपरीक्षा। तस्यापिइयंपरीक्षाइदमेवंप्रकृत्याएंवंगुणमेवंप्रभावमस्मिन्देशे जातमस्मिन्नृतौएवंगृहीतमेवंनिहितमेवमुपस्कृतमनयामात्रयायुक्तमस्मिन् रोगेएवंविधस्यपुरुषस्यैतावन्तंदोषमपकर्षयति उपशमयतिवान्यदपिचैवंविधंभेषजभवैत्तच्चानेनोन्थेनवाविशेषणयुक्तमिति ॥ ९९ ॥ -उसकी इस प्रकार परीक्षा करनी चाहिये । जैसे-इस द्रव्यकी प्रकृति ऐसी है इसमें यह गुण होतेहैं और इसका यह प्रभाव है इसके उत्पन्न होनेका यह स्थान है इस ऋतु -यह उत्पन्न होती तथा उसके उखाडेनका समय यह है । सयोग विशेषसे ऐसा गुण करती है, मात्रा उतनी है, ऐसे रोगोंमें ऐसे समयमें एवम् ऐसे पुरुषके लिये तथा ऐसे दोषोंको अपकर्षण करनेके लिये एवम् ऐसे दोषोंको शान्त करनेके लिये इसका उपयोग कियाजाता है। इत्यादिक और भी औषध सम्बन्धी जों विचार हैं अथवा इस प्रकारके अन्य · द्रव्य इसके समान हैं.अथवाः इससे गुणोंमें न्यून और अधिक हैं इत्यादिक विषयोंकी समालोचना करतेहुए द्रव्यको परीक्षा करनी चाहिये ।। ९९ ॥
कार्ययोनिपरीक्षा। कार्ययोनिर्धातुवैषम्यतस्यलक्षणावकारागमःपरीक्षात्वस्यविकारप्रकतेश्चैवोनातिरिक्तलिङ्गविशेषावेक्षणविकारस्यचसाध्या साध्यमृदुदारुणलिङ्गविशेषावक्षणमिति ॥ १००॥ .. कार्ययोनि-धातुओंकी विषमताको कहते हैं । रोगोंका प्रगट होना धातुओंकी विषमंताका लक्षण है । विकार प्रकृति अर्थात् विकारोंके कारणीभूत वात, पित्त,