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(६१२) . चरकसंहिता-भा० टी० ।
अनर्थक। . अनर्थकनामयद्वचनमक्षरग्राममात्रमेवस्यात्पञ्चवर्गवन्नचार्थतोगृह्यते ॥ ५८॥ जिस वचनसे किसी भी अर्थकी प्राप्ति न हो केवल जिह्वासे उच्चारण तो किया. जाय परन्तु उसमेंसे अर्थ कुछ न निकले उसको अनर्थक कहते हैं । जैसे, क,च,ट, आदि वाँका उच्चारण करना कुछ भी अर्थवाला नहीं होता ॥ ५८॥ .
अपार्थक। अपार्थकनामयदर्थवच्च परस्परेणचायुज्यमानार्थयथातकनक्रवंशवज्रनिशाकराइति ॥ ५९॥ पृथक् र अर्थोंवाले शब्दोंको वाक्यक्रमसे न मिलते . हुए भी उच्चारण कर देना अपार्थक कहाता है। जैसे-तक्र, नक; 'वंश, वज्र, निशाकर आदि ॥१९॥
विरुद्ध। 'विरुदनामयदृष्टान्तसिद्धान्तसमयैर्विरुद्धंतत्रपूर्वदृष्टान्तसिद्धान्तायुक्तौ। समयःपुनस्त्रिधाभवतियथायुर्वैदिकसमयोयाज्ञिकसमयोमोक्षशास्त्रिकसमयइति। तत्रायुर्वैदिकसमयश्चतुष्पादसिद्धिः। आलभ्यायजमानैःपशवइतियाज्ञिकसमयः। सर्व भूतेष्वहिंसेतिमोक्षशास्त्रिकसमयस्तत्रस्वसमयविपरीतमुच्यमानविरुद्धामतिवाक्यदोषाः ॥ ६॥
जो वाक्य दृष्टान्त और सिद्धांत तथा समयसे विरुद्ध हो उसको विरुद्ध अथवा विरुद्धता दोषयुक्त कहते हैं। इनमें दृष्टान्त और सिद्धान्तको पहिले कथन कर चुके हैं। समय-तीन प्रकारका होता है। जैसे आयुर्वेदिक समय, याज्ञिक समय और 'मोक्षशांत्रिक समय । आयुर्वेदिक समयकी-चार पदोंसे सिद्धि है । जैसे-वैध!-- रोगी, परिचारक और औषधी ॥ यजमानों द्वारा पशु आलेभनीय है यह याज्ञिक समय है ।। संपूर्ण जीवमात्रकी हिंसा नहीं करना यह मोशशाखिक समय है । अपने संमयमें दूसरेके समयका उच्चारण कर देना अर्थात् आयुर्वेदिक चतुष्पाद सिद्धिमें याज्ञिक, यजमान, पशु आदिकोंका प्रयोग करना समयाविरुद्ध वाक्यदोष कहाजाता है ॥ ६॥