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चरकसंहिता-भा० टी०॥ आदिकोंकी कार्यफल उत्पन्न करने में जिसकी जिस प्रकार जिससे अनुकूलता हो उसको उपाय कहते हैं । और कारणादिकोंको भी उपाय कहते हैं क्योंकि कारणादिक न होनेसे भी कार्यसिद्धि नहीं होती। फल और अनुबंध उपाय कहे नहीं जा सकते क्योंकि यह कार्य होजानेपर उत्पन्न होते हैं । इस दश प्रकारके कारणादि कोंका वर्णन किया गया ॥ ८९॥
परीक्ष्य। अग्रेपरीक्ष्यंततोऽनन्तरकाव्र्थाप्रवृत्तिारष्टातस्माद्भिषक्कार्यचिकीर्ष:प्राक्कार्यसमारम्भात्परीक्षयाकेवलंपरीक्ष्यपरीक्ष्यार्थ. कर्मसमारभेतकर्तुम् ॥ ९०॥
पहिले परीक्षा करके तदनन्तर कार्यार्थ के लिये प्रवृत्ति करना चाहिये । इसलिये चिकित्सा करनेकी इच्छावाला वैद्य चिकित्सा आरम्भ करनेसे प्रथम परीक्ष्य विष. यको परीक्षा करके फिर चिकित्सा करनेमें प्रवृत्त हो । ९० ॥
तत्रचेद्भिषगाभिषग्वाभिषजंकश्चित्पृच्छेद्वलनविरचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानियोक्तकामेलभिषजाकतिविधया परीक्षयाकतिविधमेवपरीक्ष्यकश्चात्रपक्ष्यिविशेषःकथञ्चपरीक्षितव्यकिप्रयोजनाचपरीक्षाकचवसनादीनांप्रवृत्तिःवचनिवृत्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंयोगेचकिनैष्ठिकंकानिचवमनादीनांभेषजद्रव्याणिउपयोगंगच्छन्तीति ॥ एवंपृष्टोयदिसोहयितुमिच्छेद् ब्रूयादेनंबहुविधाहिपरीक्षातथापरक्ष्यिविधिलेदः । कतमेनविधिभेदप्रकत्यन्तरेणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्यभेदाभवान्पृच्छतिआख्यायमानमानेदानीसवतोऽन्येनविधिभेदप्रकत्यन्तरेणभिनया 'परीक्षयाअन्येनवाविधिभेदप्रकृत्यन्तरणपरीक्ष्यस्यभिन्नस्याभिलाषितमर्थश्रोतुमहमन्येलपरीक्षाविधिभेदेनअन्येनवाविधिभेदप्रकत्यन्तरणपरीक्ष्यभित्त्वार्थमाचक्षाणइच्छांप्रपूरयेयामिति ॥ ९१॥ याद वैद्य अथवा कोई अन्य मनुष्य प्रश्न करे कि-वमन, विरेचन, भास्थापन अनुवासन और शिरोविरेचन इनका प्रयोग करनेकी इच्छावाले वैद्यको कितने