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चरकसंहिता-मा० टी०। स्मैविश्रब्धायविशदमर्थब्रूयात् । नचनिग्रहभयादुद्विजेत । निगृह्यचैनंनहृष्येत्, नचपरेषुविकत्थेत। नचमोहादेकान्तयाहीस्यात्, नचाप्रस्तुतमर्थमनुवर्णयेत् । सम्यक् चानुनयेनानुनीयेत, अनुनयाच्चपरंतत्रचावहितःस्यादित्यनुलोमसम्भाषाविधिः ॥१४॥ वह तद्विद्य संभाषा दो प्रकारकी होतीहै ।१ संधायसंभाषा ।२ विगृह्यसभाषा। उनमें ज्ञान और विज्ञानयुक्त वचन और प्रतिवचनमें सम्पन्न क्रोधरहित, बहुत विद्याको जाननेवाला, निंदारहित,नम्रतायुक्त,कष्टको सहनेवाला, एवम् प्रिय भाषण करनेवाला जो विद्वान हो उसके साथ ऐसे ही गुणोंवाला योग्य वैद्य मिलकर मित्रताके भावसे प्रीतिपूर्वक संभाषण करे। ऐसे वैद्यके साथ शास्त्रार्थ करते हुए शान्तिपूर्वक भाषण करे और शान्तस्वभावसे उसके प्रश्नोंका उत्तर देवे तथा स्पष्ट अर्थों वाले शब्दोंको उच्चारण करे और हारनेके भयसे उद्विग्न न होवे एवम् उसको जीत. कर मनमें प्रसन्न भी न होवे तथा दूसरोंके पास कथन न को और तर्क वितर्कके समय मोहसे उन्मत्त न होजाय अर्थात् एकान्तग्राही न बने एवम् झूठे तथा जिनकी आवश्यकता न हो ऐसे शब्दोंको उच्चारण न करे और दोनों आपसमें नम्रतापूर्वक प्रेमसे भाषण करें। इस प्रकारको प्रेममयी संभाषाको अनुलोम (संधाय )संभाषा कहतेहैं ।। १४ ॥
विगृह्यसंभाषणविधि । अतऊर्द्धमितरेणसहविगृह्यसम्भाषेतश्रेयसायोगमात्मनःपश्यन् । प्रागेवचजल्पाजल्पान्तरंपरावरान्तरपरिषद्विशेषांश्च सम्यक्परीक्षेतसम्यक्परीक्षाहिबुद्धिमतांकार्यप्रवृत्तिनिवृत्तिकालौचशंसति । तस्मात्परीक्षामतिप्रशंसन्तिकुशलाः । परीक्षमाणस्तुखलुपरावरान्तरमिमाञ्जल्पकगुणाञ्छेयस्करांश्च दोषवतश्चपरीक्षेतसम्यक् । तद्यथा-श्रुतंविज्ञानंधारणप्रतिभानवचनशक्तिरित्येतान्गुणाञ्छ्रेयस्करानाहुः । इमान्पुनर्दोपवतःकोपनत्वमवैशारयंभीरुत्वमनवहितत्वमिति । एतान्दयानपिनुणान्गुरुलाघववतःपरस्यचैवात्मनश्चतोलयेत् ॥ १५॥