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चरकसंहिता - भा० टी० ।
जिसके द्वारा उपलब्धि हो उसको हेतु कहते हैं । हेतुओं द्वारा जो प्राप्त हो वह -तत्त्व है । वह तत्त्व - प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य और उपमान द्वारा प्राप्त होता है ॥ ३० ॥ उपनयोनिगमनञ्चोक्तंस्थापनाप्रतिष्ठापनाव्याख्यायाम् ॥ ३१ ॥
उपनय अर्थात् उपमान और निगमनको स्थापनाको व्याख्यामें कथनकर चुके हैं ॥ ३१ ॥
अथ उत्तरम् । उत्तरंनामसाधम्म्योपदिष्टेवाहेतौवैधर्म्यवचनंवैधयोंपदिष्टेवा साधर्म्यवचनं यथाहेतुसधर्माणोविकाराः शीतकस्या हव्याधेर्हेतुसाधर्म्यवचनंहिमशिशिरवात संस्पर्शाइतिब्रुवतः परोब्रूयाद्धेतुविधर्माणोविकारायथाशरीरावयवानां दा हौष्ण्यकोथ प्रपंचनेहेतुवैधम्र्म्य हिमशिशिरवातसंस्पर्शाइति । एतत्सविपर्य्ययमुत्तरम् ॥ ३२ ॥
साधर्म्य में कहे हुए हेतुसे विपरीत हेतुको दिखाना अर्थात् उससे विपरीत वचनको कहना वैधर्म्यसे कहे हुए हेतुओंके विपरीत साधर्म्य वचनको कथन करना उत्तर कहा जाता है जैसे- किसने कहा कि जो धर्म हेतुके होते हैं व्याधिके भी वही धर्म होते हैं। जैसे- शीतसे उत्पन्न हुई वातव्याधिक जो धर्म होते हैं उसके हेतुभूत हिम, शारीर और वायुके संस्पर्शक भी वही धर्म होते हैं। इसप्रकार कहतेहुएको प्रतिवादी कहे कि जिस हेतुसे व्याध उत्पन्न होती है उस हेतुके जो धर्म होते हैं वह व्याधिके नहीं होते क्योंकि देखने में आता है कि दाह, उष्णता, कोथ (सडन ) शीतके धर्म न होनेपर भी शरीर के अवयवोंमें दाह, उष्णता आदि उत्पन्न करते हैं । और उन दाह उष्णतादिकोंके हिम शिशिर आदि विधमों गुणवाले कारण होते हैं । . इसलिये हेतु और व्याधिके गुणों में साधर्म्यता नहीं होती । इस प्रकार विपरीतवा: क्र्यके कथन करनेको "उत्तर" कहते हैं ॥ ३२ ॥
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अथ दृष्टान्तः ।
दृष्टान्तोनामयत्र मर्खविदुषां बुद्धिसाम्यं योवर्ण्यवर्णयति यथाग्निरुष्णो द्रवमुदकंस्थिरापृथिवीआदित्यः प्रकाशक इतियथावादित्यःप्रकाशकस्तथासांख्यवचनंप्रकाशकमिति ॥ ३३ ॥
१- अत्र उचरशब्देन - जोत्युं तरमु तराभासमतिम् । " साधम्येवैषम्यम्यां प्रत्यवस्थानं जातिः "
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