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चरकसंहिता-भा० टी०। हैं आर कोई रसको छाप्रकारका कहते हैं एवम् कोई कहते हैं कि इन्द्रियें पांच हैं और किसी तंत्रमें इन्द्रियोंको छः माना है । कोई मानता है कि संपूर्ण व्याधियें वातादिकोस उत्पन्न होती हैं और किसीके मतमें संपूर्ण रोग भूत प्रेत आदिकोंके किये होते हैं इस प्रकार अपने २ तंत्रमें माने हुए सिद्धान्तको प्रतितंत्र सिद्धान्त कहते हैं ॥ ३६॥
अधिकरणसिद्धान्तः । अधिकरणसिद्धान्तोनामसयस्मिन्नधिकरणेसंस्तूयमानेसिद्धान्यन्यान्यपिआधिकरणानिभवन्ति । ययानमुक्तःकम्मा ब'न्धिकंकुरुतनिस्पृहत्वादितिप्रस्तुतोसद्धाःकर्मफलमोक्षपुरुष
प्रेत्यभावाभवन्ति ॥ ३७॥ किसीएक पक्षको लेकर निर्णय करते करते वीचमें किसी अन्य विषयका निश्चय होजाना अधिकरण सिद्धान्त कहाताहै । जैसे-जिन मनुष्योंकी मोक्ष हो चुकी है। वह निस्पृही मनुष्य आगेको होनेवाले जन्मके अनुबंध करनेवाले कर्मको नहीं करते क्योंकि वह आगेके लिये अपने किसी कर्मके फलकी इच्छा नहीं रखते इस प्रका.. रके प्रस्तावमें कर्मका फल, मोक्ष,पुरुष और उसके होनेवाले जन्मादिकोंका निश्चय होजाना यह अधिकरण सिद्धान्त कहा जाता है ॥ ३७ ॥
अभ्युपगमसिद्धान्तः। अभ्युपगमसिद्धान्तोनामयमर्थमसिद्धमपरीक्षितमनुपदिष्टमहेतुकंवावादकालेऽभ्युपगच्छन्तिभिषजः। तद्यथा-द्रव्यंनप्र. धानमितिकृत्वावक्ष्यामः। गुणःप्रधानम् इति कृत्वावक्ष्यामइ
त्येवमादिश्चतुर्विधः सिद्धान्तः ॥ ३८ ॥
शास्त्रार्थके समय किसी असिद्ध विना परीक्षा किये तथा आप्तजनोंके विना 'उपदेश किये अर्थको बिना ही हेतुसे थोडी देरके लिये मानलेना अभ्युपगम "सिद्धान्त कहा जाता है। जैसे-द्रव्य प्रधान नहीं है इसका कथन करते हुए गुण प्रधान है यह मानकर फिर अपने असली कथनपर आजाना अभ्युपगम सिद्धान्त' कहाता है । इस प्रकार चतुर्विध सिद्धान्त होते हैं ॥ ३८ ॥
शब्दः । शब्दोनामवर्णसमाम्नायःसचतुर्विधःदृष्टार्थश्चादृष्टार्थश्चसत्य..श्वानृतश्चेति । तत्रदृष्टार्थस्त्रिभिहेतुभिर्दोषाःप्रकुप्यन्तिषड्भि-.