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चरकसंहिता-भा० टी०। हारपरदोषप्रमाणार्थमेवंमध्यन्दिनेऽपरालेरात्रीचशश्वदपरिहापयन्नध्ययनमभ्यसदित्यध्ययनविधिः॥४॥
अब प्रथम अध्ययन विधि अर्थात् पढने के क्रमको कयन करते हैं पढनेकी इच्छावाला आरोग्य ब्रह्मचारी नियत समयपर प्रातःकाल अथवा सूर्य उदय होनेके चार घडी प्रथम उठकर परमेश्वरका स्मरण करे और मलमूत्रादि त्यागन करनेके अनन्तर स्नान आदि कर पवित्र हो देवता, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध, सिद्ध और आचार्य आदिकोंको प्रणाम कर शुद्ध, समान, पवित्र स्थानमें सुखपूर्वक बैठाहुआ शास्त्रमें मन लगाये हुए जिन सूत्रोंको पढाहो उन सूत्रोंमें चित्त लगाकर स्पष्ट स्वरसे उनको उच्चारण करताहुआ वारवार पाठ करता जाय फिर उस सब पाठको अपनी बुद्धिमें जमाकर उस पाठमें अथवा उस विषयमें जो दोष अथवा अदोष एवम् तर्क वितर्क जो कुछ उत्पन्न हो उसको निश्चय करनेके लिये मध्यदिनमें अथवा अपराहमें या रात्रिके समय अथवा उसी समय गुरुके समीपजा अपनी शंकाओंको निवृत्त कर लेवे । और इसी विधिस नित्य पढता रहे ।यह अध्ययनकी विधि है॥४॥
अध्यापनविधि । अथाध्यापनविधिः,अध्यापनेकृतबुद्धिराचार्य:शिष्यमादितःपरीक्षेततद्यथा--प्रशान्तमार्यप्रकृतिकमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षुर्मु. खनासावंशंतनुरक्तविशदजिह्वमविकृतदन्तौष्ठम्अभिन्मिणं धृतिमन्तम्अलंकृतमेधाविनंवितर्कस्मृतिसम्पन्नमुदारसत्वंतद्विद्यकुलजमथवातत्त्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापन्नेन्द्रियंनिभृतमनुदतमव्यसनिनशीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममत्यर्थविज्ञानकर्मदर्शनेचानन्यकार्य्यमलुब्धमनलसंसर्वभूतहितैषिणमाचा_सर्वानुशिष्टिप्रतिकरमनुरक्तमेवंगुणसमुदितमध्याप्यमेवमाहुः। एवंचिरमाचार्यश्चाध्ययनार्थमुपस्थितमारिराधयिषुमनुभाषेत ॥५॥ अब अध्यापन (पढाने) की विधिका कथन करते हैं । पढानेकी इच्छावाला वैद्य प्रथम शिष्यकी परीक्षा करे शिष्य ऐसा होना चाहिये । जो शान्तचित्त और श्रेष्ठ स्वभाववाला हो, नीच कर्मोंको करनेवाला तथा नीच आशयाला न हो, जिसके नेत्र, मुख, नासिका यह सब सुन्दर और सुडौल हों,जिसकी पतली, राल,