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चरकसंहिता-मा० टी० कम्पुनःशिरोविरेचनवमनोपशमनभायष्ठतेष्वौषधेषुश्लेष्मजानांक्रिमीणांचिकित्सितंकार्यम् । इत्येवेंक्रिमिनोभेषजवि. धिरनुव्याख्यातोभवति॥३५॥ विशेषतःसे ध्यान देने योग्य यह वात है कि पुरीषजन्य कृमियोंकी चिकित्सा 'प्राय यही है कि स्वल्पमात्रासे आस्थापन तथा अनुवासनवस्ति करना और अनु लोमताके हरण करनेवाली औषधियोंका प्रयोग करना । यह पुरीषन कृमियोंकी "चिकित्सा है। कफजन्य कृमियोंमें अधिक मात्रासे वमन, शिरोविरेचन तथा उप.
शमन औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये।यह कफजनित कृमियोंका चिकित्साका वर्णन कियागया। इस प्रकार कृमिनाशक औषधविधिका वर्णन कियागयाहै३५॥
तमनुतिष्ठतायथास्वंहेतुवर्जनेप्रयतितव्यम् । यथोद्देशमेवमि. दक्रिमिकोष्ठचिकित्सितंयथावदनुव्याख्यातंभवतीति ।। ३६ ॥ कृमिनाशक औषधियों के सेवन करनेवाला मनुष्य कृमियोंके उत्पन्न करनेवाले कारणोंको त्यागने में विशेष यत्नवान् रहे । इस प्रकार यथा उद्देश कृमिकोष्ठकी चिकित्साका क्रमपूर्वक वर्णन कियागया ॥ ३६ ॥
तत्र श्लोकाः। अपकर्षणमेवादौक्रिमीणांभेषजस्मृतम् । ततोविघातःप्रकृतेनिदानस्थचवर्जनम् ॥ ३७॥ एतावद्भिषजाकार्यरोगेरोगेयथाविधि । अयमेवविकाराणांसर्वेषामपिनिग्रहे ॥ ३८ ॥ यहांपर श्लोक हैं कि पाहिले कृमियोंका आकर्षण करनाही उत्तम चिकित्सा है। उसके अनन्तर कृमियोंकी प्रकृतिका नाश करना तथा कृमिकारक पदार्थोंका त्याग देना । इसप्रकार वैद्यको प्रत्येक रोगमें विधिपूर्वक करना चाहिये । संपूर्ण विकारोंके शान्त करनेका यही क्रम है ॥ ३७ ॥ ३८॥
विधिदृष्टस्त्रिधायोऽयंक्रिमीनुद्दिश्यकीर्ततः।
संशोधनंसंशमनंनिदानस्यचवर्जनम् ॥ ३९ ॥ " • कृमियोंके उद्देशसे संशोधन, संशमन और निदानका परिवर्जन इस तीन प्रकारकी विधिका कथन किया है ॥ ३९॥
... अध्यायका संक्षेप । व्याधितोपुरुषोज्ञाज्ञौभिषजोसप्रयोजनों । विंशतिःक्रिमयस्त्वे