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विमानस्थान - अ० ७..
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रोमूर्च्छा जृम्भाक्षवथुरानाहोऽङ्गमर्दः छर्दिः काश्यपारुष्यमिति ११ ॥ इलेष्मज कफजनित कृमियोंके निदानको कहते हैं । दूध, गुड, तिल, मछली, अनूपदेशके जीवोंका मांस, पाठी अथवा मैदा आदि पिसेहुए अन्न खीर आदि उत्तम पकवान कुसुम्भका तेल, अजीर्ण करनेवाले सडेबुसे क्लेदकारक, संकीर्ण तथा बिरुद्ध पदार्थों के सेवन करनेसे एवम् असात्म्य पदार्थोंके सेवन करने से श्लेष्मज कृमि उत्पन्न होते हैं । आमाशय इनके रहनेका स्थान है। जब यह वढजः तेहैं तो ऊपर अथवा नीचे या दोनों तरफ फिरते हैं। वर्ण विशेष इनका सफेद होता है । आकारमें गोल, लम्बे होते हैं । कोई केंचुएके समान आकारवाले होते हैं। कोई श्वेत, कोई: ताम्रवर्णक, कोई बहुत छोटे, कोई बहुत लम्बे धागेके आकारके होते हैं उन तीन प्रकारके कफजनित कृमियोंके नाम यह होते हैं । जैसे अंत्राद, उदगद, हृदयाद. चुरू, दर्भपुष्प, सौगंधिक, महागुद । प्रभाव इनका जी मचलाना, मुखसे पानी बहना, अरुचि, अन्नका परिपाक न होना, ज्वर, मूर्च्छा, जंभाई, छींक, अफारा, अंगमर्द, छर्दि, शरीरका कृश होना एवम् शरीर अथवा कोष्ठका कठोर होना है । यह कफ जति कृमियोंका कार्य वर्णन कियागया ॥ ११ ॥ विष्ठाके कृमि ।
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पुरीषजास्तुल्यसमुत्थानाः श्लेष्मजैस्तेषां संस्थानं पक्वाशयः । प्रभावास्तुतेप्रवर्द्धमानास्त्वधोविसर्पन्ति । यस्यपुनरामाशयाभिमुखास्युस्तदनन्तरं तस्योद्वारनिःश्वासाः पुरीषगंधिनःस्युः । संस्थान वर्णविशेषास्तुसूक्ष्मवृत्तपरीणाहाः श्वेतादीघणांशुकस - ङ्काशाः केचित्केचित्पुनःस्थूलवृत्तपरीणाहाः श्यावनीलहरि - तपीताः। तेषांनामानिक केरुकामकरुका लेलिहाः शालूवकाः सौसुरादाश्चेति । प्रभावः पुरीषभेदः काश्यं पारुष्यं लोमहर्षा - भिंनिर्वर्त्तनञ्च । तत्रवास्यगुदमुखं परितुदन्तःकण्डूश्चोपजनयन्तो गुदमुखंपर्थ्यासते । सजातहर्षोगुदान्निष्क्रमणमतिवेलं करोति ॥ १२ ॥
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पुरोष अर्थात् मजनित कृमियोंका निदान कफके कृमियोंके सदृश जानना | इनके रहनेका स्थान पक्काशय (मलाशय ) है जब यह मलके कृमि अत्यन्त बढ जाते हैं तो नचिकी ओर गमन करते हैं तथा आमशयकी ओर ऊपरको गमन करने ते हैं इनके ऊपरको गमन करनेसे डकार और श्वासमें विष्ठा कीसी गन्ध आने लगती है।