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"विमानस्थान-१० ७. . (५८१) आये हुए तेलको निकाल लेवे । और किसी दूसरे उतम पात्रमें भरकर रक्खे । फिर इसमेंसे थोडा तेल लेकर उसमें तेलसे आधा वायविडंगका चूर्ण मिला देवे
और उसको धूपमें रखदेवे । तमाम दिन धूपमें रखकर इसमेंसे यथोचित मात्रा खिलाकर ऊपरसे गर्मपानी पिलावे । जब इससे ठीक विरेचन होचुके तब संशोधन 'किये मनुष्यका जिसप्रकार उपचार करनाचाहिये उस विधिसे इसकी रक्षा करे । (भेलाके फलका तेल लगजानेसे मनुष्यके शरीरमें खुजली, सूजन, घाव आदि अनेक उपद्रव होजातेहैं । विना विधिसे भेलावेका सेवन करना विषके समान होता है। परन्तु यह विकार भेलावेके फलके रसमें होतेहैं । फलोंकेगुठलियोंमेंसे निकाले तेलमें नहीं होते । तौ भी भेलावेका तथा अन्य किसी विषैले पदार्थका उपयोग सुयोग्य वैद्यके ही हाथसे करनाचाहिये विना जाने स्वयं करनेसे मनुष्य अपने शरीरको भी नष्ट कर वैठताहै । )॥ २९ ॥
एवमेवभद्रदारुसरलकाष्ठस्नेहानुपकल्प्यपातुंप्रयच्छेत् ।
अनुवासयेच्चैनमनुवासनकाले ॥३०॥ इसीप्रकार देवदारु तथा सरलकाष्ठका तेल निकालकर उसमें वायविडंगका चूर्ण मिलाकर १ दिन धूपमें रक्खे और दूसरे दिन गर्मजलके योगसे पिलावे । देवदारु
और सरलके तेल द्वारा अनुवासनके समय अनुवासनवस्ति करना हितकर होता है। (परन्तु भेलावेके तेलसे अनुवासनवस्ति नहीं करना) ॥ ३० ॥
बिडंगतैलम् । अथाहरेतिब्रूयाच्छारदान्नवास्तिलान्सम्पदुपेतानाहृत्यमुनिष्पूतान्निष्पूयसुशुद्धाञ्छोधयित्वाविडङ्गकषायेसुखोष्णेप्रक्षिप्यसुनिर्वापितान्निर्वापयेदादोषगमनात् । गतदोषानभिसमीक्ष्यमप्रलूनान् प्रलुच्यपुनरेवसुनिष्पूतान्निष्पूयसुशुद्धाञ्छोषयित्वावि. डङ्गकषायणनिःसप्तकत्वःसुपरिभावितान् भावयित्वाऽतपेशोंपयित्वोलूखलेसंक्षुद्यदृषदिपुनःश्लक्ष्णपिष्टान्कारयित्वाद्रोण्यामभ्यवधायविडङ्गकषायणमुहुर्मुहुरवसिञ्चन्पाणिमर्दमर्दयेत् । तस्मिन्खलुप्रपडियमानेयत् तैलमुदियात्तत्पाणियांपर्यादा
यशुचौदृढेकलशेसमासिच्यानुगुसंनिधापयेत्।अथाहरेतिबूयात्ति. ल्वकोदालकयोोंबिल्वमात्रौपिण्डौश्लक्ष्णपिष्टोविडङ्गकषायेण,