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चरकसंहिता-मा० टी०। - यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे कि हे अग्निवेश! सुनो जैसे थमें लगा हुआ रथचक्रका मध्यमभाग (अक्षी) अपने स्वाभाविक गुणोंसे युक्त हुआ सर्वगुण सम्पन्न होनेपर भी चलते चलते जीर्ण होजानेपर यथासमय अपनी शक्तिके क्षय होजानेसे नष्टभ्रष्ट होजाताहै वैसे ही इस शरीरकी आयु भी बलवान् मनुष्यकी प्रकृतिके गुणोंसे यथायोग्य निर्वाहित होतीहुई अपने प्रमाणके क्षय होनेसे नाशकों प्राप्त होजातीहै। वही इसका मृत्युकाल है अर्थात् उसको कालमृत्यु कहतेहैं और जैसे उस रथचक्रका अक्ष अत्यन्त भार लादेनेसे अथवा उंचनीचे विषम रास्तपर चलानेस, कुमार्ग लेजानेसे अथवा चक्रके कोई अंगभंग होजानेसे या चलानेवाले वाहक आदिके दोषसे तथा उसकी कील आदि नखडजानेसे वह चक्रमण्डल नष्टभ्रष्ट होजा: ताहै वही उसकी अकालमृत्यु है । उसी प्रकार आयु और बलसे विपरीत शरी; रकी चेष्टाओंको करनेसे अग्निके बलसे अधिक भोजन करनेसे, विषम आहारके शरीरकी विषमावस्था होनेसे अधिक मैथुन करनेसे दुष्टोंके संगसे आयेहुए मलादि वेगोंको रोकनेसे, काम, क्रोधादि वेगोंको न रोकनेसे, भूत, विष, अग्नि, उपताप, चोट इनके संयोगसे, आहारके न करनेसे मनुष्य पूर्णआयुको प्राप्त न होकर वीचमें ही मृत्युको प्राप्त होजाताहै । इसीको अकालमृत्यु कहते हैं ॥ ५२ ॥ ५३॥ ५४॥
तथाज्वरादीनप्यातङ्कान्मिथ्योपचरितानकालमृत्यून्पश्याम शत ॥ ५५ ॥ तथा ज्वरादिरोगोंका मिथ्या उपचार करनेसे भी अकालमृत्यु देखनेमें आती
अग्निवेशका प्रश्न। अथाग्निवेशःप्रपच्छकिन्नुखलुभगवन्।ज्वरितेभ्यःपानीयमुष्णं भयिष्ठप्रयच्छन्तिभिषजोनतथाशीतम् । अस्तिचशीतसाध्यो धातुर्वरकरइति ॥ ५६ ॥ इसके उपरान्त अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! प्रायः ऐसा देखनेमें आता है कि जैसे ज्वरादित मनुष्यों को प्रायःगर्मजलही पीने के लिये दियाजाताहै वैसे शीत- ., लजल नहीं दियाजाता । और शीतक्रिया साध्य धातु भी ज्वरको उत्पन्न करने. वाली होती है इसलिये उन ज्वरों में शीतल जल क्यों नहीं दियाजाता ॥ ५६ ॥
ज्वरमें उष्णजलका विधान ।। तमुवाचभगवानात्रेयोज्वरितस्यकायसमुत्थानदेशकालानाभ.समीक्ष्यपाचनार्थपानीयमुष्णप्रयच्छन्तिभिषजः।ज्वरोह्यामा