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(५६४) चरकसंहिता-भा० टी।
उन चार प्रकारके पुरुषों के लिये अग्निके अनुसार चार प्रकारके ही आहार हितकारक होते हैं उनमें जिस मनुष्यके शरीरकी सव धातुयें साम्यावस्थामें हों तथा तीनों दोष पूर्णरूपसे बढे हुए हों उनमें तीनों दोषोंके लक्षणों की अधिकताकों देखकर दोषोंके प्रतिकूल अर्थके करनेवाले अर्थात् दोषोंको साम्यावस्थामें लगानेवाले औषध अन्नपानादिकोंको दे अथवायों कहिये किजिस मनुष्यके शरीर में वातादि कोई दोष बढा हुआ हो उसको साम्पावस्यामें करनेवाले अन्नपानादि देवे जब उस मनुष्यकी अग्नि दोषोंकी साम्यावस्था होनेसे समअवस्थामें आजाय तव उसको त्रिविध आहारोंकोसमरीतिपर उपयोग कराव।जिस प्रकार अन्नपान तथा अन्यान्य क्रिया और औषधादिक प्रयोग दोषोंको तथा अग्निको साम्यावस्थामें करनेके लिये किये जाने चाहिये उनका विस्तारपूर्वक आगे वर्णन करते हैं। तीन प्रकारके पुरुष रोगी होते हैं परन्तु अन्य शास्त्रोंके माननेवाले वैद्य उनको रोगी नहीं मानते । वह तीन प्रकारके पुरुष यह हैं । जैसे-वातप्रधान, पित्तमधान और कफप्रधान ॥ १६॥
तेषांविशेषविज्ञानवातलस्यवातनिमित्ताः पित्तलस्थपित्तनिमित्ताः श्लेष्मलस्यश्लेष्मनिमित्ताव्याधयः प्रायेणवलवन्तश्च ॥१७॥ उनका विशेष विज्ञान इस प्रकार है कि वातप्रधान मनुष्यको वातके रोग आधिक होतेहैं । पित्तप्रधान मनुष्यको पित्तके रोग अधिक होते हैं।तथा कफप्रधान मनुष्यको कफके रोग प्रायः आधिक होतेहैं ॥ १७ ॥
वातप्रकृति के रोग। तत्रवातलस्यत्रकोपणोक्तान्यासेवमानस्याक्षप्रंवातःप्रकोपमा. पद्यतेनतथेतरौ ॥१८॥ इनमें वातप्रधान मनुष्य शरीरमें वातकारक पदार्थोंको खानेसे वायु शीघ्र कोपको प्राप्त होता है । इस प्रकार पित्तकारक और कफकारक पदार्थीको आधिकखानेसे वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें पित्त और कफका कोप नहीं होता ॥१८॥ सतस्यप्रकोपमापन्नोयथोक्तैर्विकारैः शरीरमुपतपतिबलवर्णसुखायुषामुपघाताय ॥ १९॥ वातप्रधान मनुष्यके शरीरमें वायुका कोप होनेसे-चायुके रोग उत्पन्न होकर शरीरको दुःखित कर देते हैं तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको भी नष्ट कर डालते है ॥ १९॥
१ नततराविति। सत्यपि हेतुसेवयेत्यर्थः अन्यथा वात्प्रकोपणसेवया पित्ताहमणोद्धिरेव नास्ति। यद्यपि विनासनादयो वातप्रकोपकरास्तथापि वातननितोन्मादविनाशकत्वेन चोकाः ।