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विमानस्थान-अ०६. बमें स्थित रहनेसे अग्नि सम रहतीहै । वातप्रधान मनुष्योंके वायुद्वारा अग्निस्थान व्याप्त होनेसे अग्नि विषम होती है। यहांपर कोई कहते हैं कि वात, पित्त, कफ किसी मनुष्पके शरीरमें साम्यावस्थामें नहीं रहते क्योंकि सब मनुष्योंका आहार एक प्रकारका और वात, पित्त, कफको समान रखनेवाला नहीं होता। इसीलिये कोई मनुष्य वातप्रकृति कोई पित्तप्रकृति और कोई कफप्रकृतिवाले होतेहैं । सो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जिसके शरीरमें वात,पित्त और कफ साम्यावस्थामें हैं अर्थात् अपने २ परिमाणमें स्थित हैं उन्हीं मनुष्योंको वैध आरोग्य अर्थात् निरोगी कहतेहैं । आरोग्यताही मनुष्योंकी प्रकृति है। आरोग्यताके लियेही औषध आदिकोंका प्रयोग किया जाता है इसीलिये वात, पित्त कफकी साम्यावस्थासाले . मनुष्य ही आरोग्य कहे जाते हैं और उनको वातप्रकृति पित्तप्रकृति अथवा कफप्रकृति नहीं कहा जाता । जिस जिस दोषकी अधिकता जिस मनुष्यों होती है उसको उसी दोषकी प्रकृतिवाला कहा जायगा ॥ १४ ॥
नचविरुतेषुदोषेषुप्रकृतिस्थत्वमुपपद्यतेतस्मान्नैताः प्ररुतयः सन्तिसन्तिखलुवातला:पित्तलाःश्लेष्मलाश्चाप्रकृतिस्थास्तु तेज्ञेयाः ॥१५॥
भव कहतेहैं कि यदि किसी मनुष्यके शरीर में वायु अधिक हो तो उसको वातप्रकृति नहीं कहना चाहिये क्योंकि प्रकृतिनाम अपने ठीक स्वभावमें स्थित रहनेका है । वायुकी अधिकता होनेसे वायुकी विकृति माननी चाहिये । इसलिये विकृत हुए दोषोंको प्रकृति नहीं कहना चाहिये । सो वातल, पित्तल, श्लेष्मल अर्थात् वातप्रधान कफप्रधान और पित्तप्रधान मनुष्य प्रकृतिस्थ नहीं होते ॥ १५ ॥
चार प्रकारके अन्नप्रणिधान । तेषान्तुखलुचतुर्विधानांपुरुषाणांचत्वार्यन्नप्रणिधानानिश्रेयः . स्कराणि । तत्रसमसर्वधातूनांसाकारसममधिकदोषाणान्तु त्रयाणांयथास्वदोषाधिक्यमभिसमीक्ष्यदोषप्रतिकूलयोगीन त्रीणिअन्नप्रणिधानानिश्रेयस्कराणियावःसमीभावात्,ससे तुसममेवतुकार्यमेवंचष्टाभेषजमयोगाश्चापरे, तद्विस्तरेणानु- - व्याख्यास्यन्ते । त्रयस्तुपुरुषाभवन्त्यातुरास्तेअनातुरास्तन्त्रान्तरीयाणांभिषजाम् । तयथा-वातलः श्लेष्मलः पित्तल इति ॥ १६॥