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विमानस्थान - अ० ७.
(GES)
दो प्रकार के पुरुष व्याधितरूप अर्थात् रोगी देखनेमें आते हैं । उनमें एक तो इस प्रकारके होते हैं कि अत्यन्त व्याधियुक्त होनेपर भी सत्व, बल और शारीरिक सम्पत्तिके सामर्थ्ययुक्त होनेसे थोडी व्याधिवाले दिखाई देते हैं। दूसरे इस प्रकार के होते हैं कि जो थोडी व्याधियुक्त होनेपर भी सत्व, बलादिकों की हीनतासे भारी व्याधिवाले दिखाई देते हैं ॥ १ ॥
अज्ञानियोंका भ्रम |
तयोरकुशलाः केवलं चक्षुषैवरूपं दृष्ट्राव्यवस्यन्तोव्याधिगुरुलाघवेविप्रतिपद्यन्ते। नहिज्ञानावयवेन कृत्स्नेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते ॥२॥ इन दोनों प्रकारके पुरुषोंकी चिकित्सा करते समय अनभिज्ञ वैद्य केवल नेत्रोंसे रोगीकी आकृतिको देखकर ही व्याधिके गौरव और लाघवका निश्चय मान लेते हैं । पर वह रोग के यथार्थ ज्ञानको सम्पूर्ण रूपसे नहीं जान सकते ॥ २ ॥ विप्रतिपन्नास्तुखलुरोगज्ञानेउपक्रमयुक्तिज्ञानेचअपिविप्रतिप
द्यन्ततियदागुरुव्याधितंलघुव्याधित रूपमासादयन्तितदात
मल्पदोषमत्वासंशोधनकालेऽस्मैमृदुसंशोधनंप्रयच्छन्ताभूयए : वास्य दोषमदीरयन्ति । यदातु लघुव्याधितं गुरुव्याधितरूपमासादयन्ति महादोषंमत्वा संशोधनकालेऽस्मैतीक्ष्णसंशोधनंप्रयच्छन्तोदोषानतिनिर्हृत्यशरीरमस्याक्षिण्वन्ति ॥ ३ ॥
रोगका यथार्थ ज्ञान न होनेसे उस रोगकी चिकित्सा भी मूर्खतासे करने लगते हैं । जब वह किसी भारी व्याधिवाले मनुष्य के सत्व, वल शरीर आदिको देखकर व्याधिको लघु मान लेते हैं तव रोगीको अल्प दोषवाला समझकर बहुत नर्मशोधन आदि करते हैं । ऐसा करनेसे दोषोंको उलटा उत्तेजित कर देते हैं । जब यह अनभिज्ञ किसी लघु व्याधिवाले मनुष्यको उसका रंगढंग देखकर भारी व्याधिवाला मान लेते हैं तो उसको तीक्ष्ण संशोधनादि प्रयोग करते हैं जिससे दोषोंको अत्यन्त हरण करके शरीरको क्षीण कर देते हैं ॥ ३ ॥
एवमवयवेनज्ञानस्य कृत्स्नेज्ञेयेज्ञानमितिमन्यमानाः स्खलन्ति, विदितवेदितव्यास्तुाभषजः सर्वसर्वथा यथासम्भवपरीक्ष्यंपरीक्ष्याध्यवस्यन्तोनक्वचनविप्रतिपद्यन्ते, यथेष्टमर्थमभिर्निर्वत्तयन्तिचोति ॥ ४ ॥