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चरकसंहिता - मा० टी० ।
स्त्रोतही होते हैं । यह स्रोतही सम्पूर्ण रस, घातु, वायु आदिके अयन अर्थात गतिस्थान और अधिष्ठान होते हैं ॥ २ ॥
तद्वदतीन्द्रियाणां पुनः सच्त्वादीनां केवलंचेतनावच्छरीरमयनतदेतत्स्रोतसांप्रकृतिभूतत्वान्नविकारैरु
भूतमधिष्ठानभूतञ्च
पसृज्यते शरीरम् । तत्रप्राणवहानांस्रोतसां हृदयंमूलंमहास्रोतश्च; प्रदुष्टानामिदं विशेषज्ञानं भवति अतिसृष्टकुपितंसप्रति - बन्धमल्पाल्पमभीक्ष्णंवासशब्दशूलमुच्छ्रसन्तं दृष्ट्वा प्राणवहान्यस्यस्रोतांसिप्रदुष्टानीर्तिविद्यात् ॥ ३ ॥
उसी प्रकार चेतनायुक्त केवल शरीर - इन्द्रियोंका तथा मन आदिकोंका गतिस्थानं मार्गरूप एवम् अधिष्ठान होता है । यही कारण है कि सम्पूर्ण स्रोत प्रकृतिभूत होनेसे शरीर में विकारको नहीं होने देते । इनमें प्राणोंके वहन करनेवाले 'स्रोतों का मूल हृदय है और उसको महास्त्रोत भी कहते हैं । यह स्रोत जब दूषित होते हैं तब इनमें यह विशेषता होता है कि उच्छासकों, अधिक छोडे, बहुत तेज़ या रुककर थोडा २ अथवा शब्दयुक्त शूलके साथ श्वास आवे । इन लक्षणोंसे प्राणवाहक स्रोतोंको दूषित हुआ जानें ॥ ३ ॥
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दूषित उदकवाही स्रोतके लक्षण |
उदकवहानां स्रोतसां तालुमूलंक्कोमच प्रदुष्टानामिदंविज्ञानं,तद्यथाजिह्वा ताल्वोष्ठकण्ठक्लोमशोषंपिपासाञ्चातिप्रवृद्धांदृष्ट्वोदकवहान्यस्यस्रोतांसि प्रदुष्टानीतिविद्यात् ॥ ४ ॥
जलके वहन करनेवाले स्रोतोंका मूल तालु और क्लोम होता है । यदि यह स्रोत दूषित होजांय तो इनके ये लक्षण होते हैं । जैसे- जिल्हा, तालु, ओष्ठ और क्लोम ( प्यास लगानेवाली कारणभूत स्थान ) ये सूखने लगें प्यास अधिक लगे । इन लक्षणोंसे जलके वहन करनेवाले स्रोतोंको दूषित हुआ जाने ॥ ४ ॥ दूषित अन्नवाही स्रोतके लक्षण ।
अन्नवहानांस्त्रोतसामामाशयोमूलंवामञ्च पार्श्वम्, प्रदुष्टानान्तुख ल्वेषामिदविशेषविज्ञानंभवति, तद्यथाअनन्नाभिलषणमराचकाविपाकौछर्द्दिञ्चदृष्ट्वाअन्नवहानि स्रोतांसि प्रदुष्टानीति, - विषात् ॥ ५॥