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चरकसंहिता - भा० टी० ।
निमित्तञ्चागन्तुनिमित्तञ्च, डेरोगानी के आशय भेदेन आमाशय -
समुत्थञ्चपक्वाशयसमुत्थञ्च ॥ १ ॥
रोगों के समूह प्रभाव के भेदसे दो प्रकारके होते हैं। प्रथम साध्य । द्वितीय असाध्य । - रोग समूहके वलके भेदसे दो भेद होते हैं । मृदु और दारुण । अधिष्ठान भेदसे दो प्रकार के हैं । मनोधिष्ठान और शरीराधिष्ठान । निमित्त भेदसे दो प्रकारके हैं। निजधातु • वैषम्यनिमित्तक और आगन्तुक निमित्तक । आशयभेदसे दो प्रकार के हैं आमाशयसे उत्पन्न होनेवाले और पक्वाशयसे उत्पन्न होनेवाले ॥ १ ॥ रोगोंको संख्पासंख्येयत्व |
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एवमेतत्प्रभावबलाधिष्ठाननिमित्ताशयद्वैधं समुद्भेदप्रकृत्यन्तरे-. णभिद्यमानमथवासन्धीयमानंस्यादेकत्वं वाबहुत्वंवा, एकत्वं तावदेकमेव रोगानीकंदुःखसामान्यात्. बहुत्वन्तुदशरोगानीकानिप्रभावभेदादीनि, बहुत्वमपिसंख्येयं वास्यादसंख्येयं : संख्येययथोक्तम्- अष्टोदरीये, असंख्येयं यथाम हतिरोगाध्याये रुग्वर्णसमुत्थानादीनामसंख्येयत्वात् ॥ २ ॥
- इस प्रकार प्रभाव, बल, अधिष्ठान, निमित्त और आशयभेदसे दो दो प्रकारके - होतेहुए भी निदान और प्रकृतिके भेदसे सब रोग पृथक् २ अथवा मिले हुए होते हैं इस प्रकार संपूर्ण रोगोंको एकत्व अथवा वहुत्व कथन किया है । जैसे- संपूर्ण रोग दुःख देनेवाले होनेसे अर्थात् दुःखदायित्व होनेसे संपूर्ण रोगसमूहको एकस्व कथन किया है अब बहुत्वको कथन करते हैं । प्रभाव भेदादिकोंसे रोगसमूह दश भेदमें विभक्त हैं। रोगोंके बहुस्वकी संख्या हो भी सकती है और सूक्ष्म अंशांश विकल्पना द्वारा इनकी संख्या नहीं होसकती । जैसे- अष्टादरीयाध्यायमें रोगोंकी संख्या और - महारोगाध्यायमें असंख्पता वर्णन की है संपूर्ण रोगसमूह पीडा, वर्ण, कारण आदि भेदों से कल्पना किये जानेपर असंख्यताको प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
नचसंख्येयायेषु भेदप्रकृत्यन्तरीयेष्वविगीतिरित्यतोनदोषवती स्यादत्रकाचित्प्रतिज्ञानचाविगीतिरित्यतःस्याददोषवद्भत्ताहि भेद्यमन्यथाभिनत्त्यन्यथा पुरस्ताद्भिन्नं भेदप्रकृत्यन्तरेणभिन्दनभेदसंख्या विशेषमापादयत्यनेकधानच पूर्व भेदाग्रमुपहन्ति ॥३॥ संपूर्ण रोगों के एक ही समय संख्येय और असंख्येय होने से कोई विरोध उत्पन्न
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