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विमानस्थान-अ० ४.
(५४३) गविदेोनिष्प्रीत्युपतापदर्शिनश्च ।तेषामेवंगुणयो गाद्यद्वचनंत- ; प्रमाणम् । अप्रमाणपुनर्मत्तोन्मत्तमूर्खरक्तदुष्टान्तःकरणवचनमिति ॥ २॥ इनमें आप्तोपदेश-आप्त पुरुषों के वचनको कहतेहैं । जिन महर्षियोंको सम्पूर्ण विषयोंमें तर्करहित यथार्थ निश्चयात्मक ज्ञान हो । जो भूत, भविष्यत्, वर्तमानके ज्ञानको जाननेवाले हैं। जिनकी स्मरणशक्ति कभी नष्ट नहीं होती।जिनको किसीसे राग, द्वेष नहीं है तथा. पक्षपात गहित हैं। उन ऋषियोंको आप्त कहते हैं । इस प्रकारके गुणवाले ऋषियोंके वचनको आप्तोपदेश कहते हैं और वह आप्तोपदेश वितकरहित प्रमाण होता है जो मनुष्य-मत्त, उन्मत्त, मूर्ख और पक्षपाती है तथा जिनका अन्तःकरण दुष्ट है उनका वचन अप्रमाणिक होताहै ॥ २ ॥
प्रत्यक्ष और अनुमान । प्रत्यक्षन्तुखलुतधत्स्वयमिन्द्रियैमनसाचोपलायते।
अनुमानंखलुतर्कोयुक्त्यपेक्षः ॥ ३॥ इन्द्रिय और मनके संयोगसे जो अस्मदादिकोंका यह घट है, यह पट है, यह स्थाणु है, यह पुरुष है इस प्रकारका जो निश्चयात्मक ज्ञान होता है उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । तर्क और युक्तिसे जो ज्ञान होता है उसको अनुमान कहते हैं ॥ ३ ॥ त्रिविधेनखल्वनेनज्ञानसमुदयेनपूर्वपरीक्षयरोगसर्वथासर्वमेवोत्तरकालमध्यवसानमदोषंभवति ॥४॥ इन तीन प्रकारके प्रमाणों द्वारा अर्थात् ज्ञान समुदाय द्वारा रोगोंकी परीक्षा करके तदनन्तर उनकी चिकित्सा करनी चाहिये । इस प्रकार करनेसे प्रथम मध्यम और उत्तरकाल पर्यन्त सब प्रकार वैध निदोषी रहताहै ॥ ४ ॥ नहिज्ञानावयवेनकृरलेज्ञेयेज्ञानमुत्पद्यते । त्रिविधेत्वस्मिज्ञानसमुदायेपर्वमातोपदेशाज्ज्ञानंततःप्रत्यक्षानुमानाभ्यांपरीक्षापपद्येत । किनुपदिष्टपर्वप्रत्यक्षानुमानान्यांपरीक्ष्यमाणोविद्यात् । तस्माद्विविधापरीक्षाज्ञानवतांप्रत्यक्षमनुमानञ्चति । त्रिविधावासहोपदेशेन । तत्रेदमुपदिशन्तिबुद्धिमन्तो । रोगमेकैकमेवंप्रकोपमेयोनिमेवात्मानमेवमधिष्ठानमवंवेदनमवंसंस्थानमेवंशब्दस्पर्शरूपरसगन्धमेवमुपद्रवमेवंवृद्धिस्था