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चरकसंहिता - भा० टी० ।
तथा इन्द्र नियत आयुवाले अपने शत्रुओं को, वज्रसें नहीं मारसकता और न अश्विनीकुमार औषधियोंद्वारा किसीको आरोग्य कर सकते अर्थात् उनकी चिकित्सा ही वृया जाती और ऋषिलोग तपके प्रभाव से दीर्घायुको प्राप्त न होते । तथा प्रत्यक्षदर्शी महर्षिगण और इन्द्र भूत, भविष्य, वर्तमानको जानते हुए आयुऔर हितकारक आयुर्वेदका उपदेश न करते । एवम् स्वयं भी यज्ञादिक न क्रिया करते ॥ ४७ ॥
अपिच सर्वचक्षुषामेतत्परं यदैन्द्रचक्षुरिदञ्चास्माकंतेन प्रत्यक्षयथापुरुषसहस्राणामुत्थायोत्थाया हवं कुर्वतामकुर्वताञ्चातुल्यायुष्यं ! तथाजातमात्राणामप्रतीकारात्प्रतीकाराच्चअविषाविषप्राशि
नांचापिअतुल्यायुष्टुंनचतुल्योयोगक्षेम उदपानघटानांचित्रघटानाञ्चत्सीदताम् ॥ ४८ ॥
सर्वज्ञ महर्षियों तथा प्रत्यक्षदर्शी इन्द्रका तो कहना ही क्या है परन्तु हम लोग श्री प्रत्यक्ष देखते हैं कि सहस्रों मनुष्यों में जो मनुष्य - लडाई युद्ध आदिमें जाते हैं और जो कभी किसी लडाई, दंगेमें शामिल न होते उनकी आयु में भी तुल्यता.. नहीं है अर्थात् संग्राम आदिमें जानेवाले शीघ्र मृत्युको प्राप्त होते हैं और जो संग्राम में नहीं जाते वह उस तात्कालिक मृत्युसे बचे रहते हैं । इसीप्रकार जो मनुष्य जन्म लेते ही औषधादि द्वारा रक्षित रहते हैं और जो नहीं रहते उनकी आयुमें भी तुल्यता नहीं होती । जिन मनुष्योंने प्राणनाशक विष खाया है और जिन्होंने नहीं खाया उनकी आयु भी तुल्य नहीं होती । जो जल पीनेके पात्र नित्यप्रति वर्तनेमें aat और जो चित्रयुक्त पात्र बिना वर्ते रक्खे रहते हैं उनकी आयु में तुल्यता नहीं है अर्थात् नित्य वर्त्ते हुए पात्र शीघ्र घिसकर टूट जाते हैं और जो रक्खे रहते हैं वह चिरकालतक वैसे ही पड़े रहते हैं ॥ ४८ ॥
'तस्माद्धि तोप चार मूलंजीवितमतोविपर्य्ययान्मृत्युः ॥ अपिच देशकालात्मगुणविपरीतानां कर्मणामाहारविकाराणाञ्चक्रियोपयोगः ॥ ४९ ॥
इसलिये मनुष्यका जीवन हित उपचारके आश्रित है। इससे विपरीत अर्थात् अहित सेवन से आयु नष्ट होती है। तथा देश, काल और सात्म्य के विपरीत कर्मोंके करनेसे एवम् आहारविहारके अनुचित उपयोगसे भी अकालमें आयु नष्ट होती है ॥ ४९ ॥