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विमानस्थान - अ० ३.
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और विपुल प्रभावशाली होतेथे देवता तथा देवार्षे उनको प्रत्यक्ष मिलते थे, वह लोग धर्म और यज्ञोंको विधिपूर्वक किया करतेथे, उनके शरीर पहाडोंके समान सारयुक्त संगठित और स्थिर रहतेथे, वर्ण और इन्द्रियें, सब प्रसन्न होतीथीं पवनके समान बल और वेग तथा पराक्रमयुक्त होतेथे । उनके नितम्व तथा अन्य शरीर के अंग उत्तम होते थे, उनके शरीरसुंदर गठनयुक्त तथा उचित प्रमाणवाले और सुन्दर आकार तथा प्रसन्नता एवम् पुष्टियुक्त होते थे । वह लोग सत्य, आचार, दयालुता, लज्जा, दान, दम, नियम, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य और व्रत इनका भलेप्रकार पालन करतेथे अर्थात् इनका सेवन करना ही अपना परम कर्त्तव्य मानतेथे । उस समय उनके समीप भय, राग, द्वेष, मोह, लोभ, क्रोध, शोक, अहंकार, रोग, निद्रा, तन्द्रा, श्रम, क्लम और आलस्य नहीं आतेथे और वह अन्यकी वस्तु के हरनेकी कभी इच्छा नहीं रखतेथे । इसीलिये उनकी आयु भी बहुत वडी होतीथी ॥ २९ ॥
तेषामुदारसत्त्वगुणकर्मणामचिन्त्यत्वात्रसवीर्य्यविपाकप्रभावगुणसमुदितानिप्रादुर्बभूवुः शस्यानि सर्वगुणसमुदितत्वात्पृथिव्यादीनां कृतयुगस्यादौ । भ्रश्यतितुकृतयुगेकेषाञ्चिदत्यादानात्साम्पन्निकानांशरीरगौरवमासीत् । सत्त्वानांगौरवाच्छ्रमःश्रमादालस्यमालस्यात्सञ्चयःसञ्चयात्परिग्रहःपरिग्रहाल्लोभः प्रादुर्भूतः ॥ ३० ॥
उनके उदारभाव तथा सवगुण एवम् शुभकमोंके फलसे रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव इन उत्तम गुणोंयुक्त खेतियें तथा औषधियें उत्पन्न होतीथीं । उस समयकी अवस्था अब स्मरण भी नहीं की जासकती । क्योंकि तव सत्ययुगके प्रारम्भमें पृथ्वी आदिक सर्वगुणसम्पन्न होतेथे । सत्ययुगके व्यतीत होजानेपर कुछ मनुष्यों के अत्यन्त आदान (ग्रहण ) करने से सम्पन्न होकर शरीरमें गौरव उत्पन्न हुआ । गाव होनेसे श्रम उत्पन्न हुआ, श्रमसे आलस्य, आलस्यते सञ्चय और सञ्चयसे परिग्रह तथा परिग्रहसे लोभ उत्पन्न हुआ ॥ ३० ॥
ततः कृतयुगे गते त्रेतायां लोभादभिद्रोह: । अभिद्रोहादनृतवचनमनृतवचनात् कामक्रोधमानद्वेषपारुष्याभिघातभयतापशोकचित्तोद्वेगादयः प्रवृत्ताः ॥ ३१ ॥
१ परिग्रह परवस्तुके ग्रहणको कहते हैं ।