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विमानस्थान - अ० ३.
(५३३)
सौवर्ष व्यतीत होजाने पर एक शताब्दी क्षय होजाती है इसी प्रकार मनुष्योंकी आयु भी सौवर्ष व्यतीत होनेपर क्षीण होजाती है कलियुग में आयुका सौवर्ष पर्यन्त ही प्रमाण है ॥ ३५ ॥
इतिविकाराणां प्रागुत्पत्तिहेतुरुक्तो भवति ॥ ३६ ॥
इस प्रकार रोगोंकी प्रथम उत्पत्ति के कारणको कथन कियागया है ॥ ३६ ॥ एवंवादिनं भगवन्तमात्रेयमग्निवेशउवाच । किन्नुखलु भगवन् ! नियतकालप्रमाणमायुः सर्वनवेति भगवानुवाच । इहअग्निवेश ! भूतानामायुर्युक्तिमपेक्षते ॥ ३७ ॥
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इस प्रकार कथन करते हुए भगवान् आत्रेयजीसे अग्निवेश कहने लगे कि हे भगवन् ! क्या आयुका प्रमाण सौवर्षका निश्चयात्मक है या नहीं ? अर्थात् सब मनुष्योंकी आयु सौवर्षकी नियत है या नहीं । यह सुनकर भगवान् आत्रेयजी कहने लगे कि, हे अग्निवेश ! संपूर्ण मनुष्योंकी आयु युक्तिकी अपेक्षा करती है प्रारब्ध और पुरुषार्थके योगाधीन आयुका प्रमाण है) ॥ ३७ ॥
कर्मों का वर्णन | दैवे पुरुषकारे चस्थितंह्यस्यबलाबलम् । दैवमात्मकृतं विद्यात्कर्मयत्पूर्व दैहिकम् ॥ ३८ ॥ स्मृतःपुरुषकारस्तुक्रियतेयदिहापरम् । बलाबलविशेषोऽस्तितयोरपिचकर्म्मणोः ॥ ३९ ॥
आयुका वलावल देव और पुरुषकार के आधीन है । मनुष्य के पूर्वजन्मके किये कर्मको दैव कहते हैं और इस जन्मके कियेहुए कर्मको पुरुषकार कहते हैं। इन दोनों प्रकारके कर्मों में भी बलावलकी विशेषता होती है ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ कर्मके भेद | दृष्टहित्रिविधं कर्म हीनंमध्यममुत्तमम् । तयोरुदारयोर्युक्तिर्दीर्घस्य स्वसुखस्यच ॥ ४० ॥
यह द्विविध कर्म तीन प्रकारका होता है हीन, मध्यम और उत्तंम । इनमें दैव और पुरुषार्थ दोनों उत्तम होनेसे मनुष्य के सुख और आयुकी नियत अवस्था होती है अर्थात् जिस मनुष्यका देव और पुरुषकार यह दोनों उत्तम होते हैं वह सुखपूर्वक सौवर्ष जीता रहता है ॥ ४० ॥