________________
(५१६). चरकसंहिता-भा०. टी०.।
दोषोंके कुपितहोनेका कारण । योहिमूर्तानामाहारविकाराणांसौहित्यंगत्वापश्चाद्वैस्तृप्तिमापद्यतेभूयस्तस्यामाशयगतावातपित्तश्लेष्माणोऽभ्यवहारेणअतिमात्रेणातिप्रपीडयमानाःसर्वेयुगपत्प्रकोपमापद्यन्ते ॥६॥ जो मनुष्य पूडी आदि कडे पदार्थोंसे पेट भरकर फिर दूध, जल आदिसे पेटको पूर्णकर लेताहै उस मनुष्यके आमाशयमें प्राप्तहुए वात, पित्त, कफ अधिक भोजन, करनेसे पीडित हुए एककालमें ही सव कोपको प्राप्त होतेहैं ॥ ६ ॥
पृथक् २ दोषाके उपद्रव । तेप्रकुपितास्तमेवाहारराशिमपरिणतमाविश्यकुक्ष्येकदेशमानि- . ताविष्टम्भयन्तःसहसावापिउत्तराधराभ्यांमार्गाभ्यांप्रच्यावय... न्तःपृथक्पृथग्विकारानभिनिर्वतयान्तअतिमात्रभोक्तुः ॥७॥ फिर वह कुपित हुए दोष उसी आहारसमूहमें मिलकर कोखके एक देशमें स्थित होजातेहैं । तब वह विष्टम्भको करते हुए सहसा ऊपरको या नीचेको निकलने आरम्भ होतेहैं। तब वह दोष अत्यन्त भोजन करनेवाले मनुष्यके शरीरमें अपने अलग २ विकारोंको करते हैं ॥ ७ ॥
कुपितवातादि दोषोंके उपद्रव ।। तत्रवातःशूलानाहाङ्गमर्दमुखशोषमूर्छाभ्रमानिवैषम्यशिरासङ्कोचनसंस्तम्भनानिकरोति ॥८॥ इनमें कुपित हुआ वायु-शूल, अफारा, अंगमर्द, मुखशोष, मूर्छा, भ्रम, अनिकी विषमता, सिराओंका संकोच और अंगोंका स्तम्भ आदि उपद्रवोंको करता है ॥८॥
पित्तंपुनज्वरमतीसारमन्तर्दाहंतृष्णामदभ्रमप्रलपनानि ॥९॥ . वहुत आहारसे कुपित हुआ पित्त-ज्वर, अतिसार, अन्तर्दाह, तृषा, मद, भ्रमः और बकवादको उत्पन्न करताहै ॥ ९॥ श्लेष्मातुरचरोचकाविपाकशीतज्वरालस्यगात्रगौरवाभिनि- . वृत्तिकरःसस्पद्यते ॥१०॥ इसी प्रकार कुपित हुआ कफ-छर्दी, अरुचि, अविपाक, शीतज्वर, आलस्य, देहमें भारीपन इनको उत्पन्न करता है ॥ १० ॥