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चरकसंहिता - भा० टी० ।
करने चाहिये । अर्थात् अपतर्पण करना आमदोषको चिकित्सा है। यदि अपतर्पण. करनेपर भी आमसे उत्पन्न हुए रोग शेष रहजांयं तो उन रोगोंकी नाश करनेवाली 'औषधी करनी चाहिये। जैसे सम्पूर्ण विकारोंकी शान्तिके लिये वैद्यलोग हेतु व्याधिके विपरीत अर्थकारी चिकित्सा करते हैं वैसे ही यहां पर भी करनी चाहिये ॥ २० ॥ तदर्थकारिविपक्क भुक्कामप्रदोषस्यपुनः परिपक्वदोषस्यदीतेचाग्नौअभ्यङ्गास्थापनानुवासनंविधिवत्स्नेहपानञ्च युक्त्याप्रयोज्यम्, प्रसमीक्ष्यदोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्य सत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यगिति ॥ २१ ॥
फिर हेतु और व्याधिके विपरीत अर्थवाली चिकित्सा करनेसे जब आमदोष पचजाय और दोष के पचनेसे जठराग्नि चैतन्य होजाय फिर विधिपूर्वक अभ्यंजन, अनुवासन और आस्थापन तथा स्नेहपान यह युक्तिपूर्वक कराने चाहिये । तथा दोष, औषधी, देश काल, बल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति और अवस्था इन सवको भलीप्रकार विचारकर तथा विकारों को देखकर विधिवत् चिकित्सा करे२१ ॥ भवति चात्र ।
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अशितंखादितंपीतंलीढञ्चचविपच्यते । एतत्त्वांधीर ! पृच्छामस्तन्नआचक्ष्वबुद्धिमन् ॥ २२ ॥ इत्यग्निवेशप्रमुखैः शिष्यैः पृष्टः पुनर्वसुः । आचचक्षेततस्तेभ्योयत्राहारोविपच्यते ॥ २३ ॥
यहां पर कहा है कि खानेके, चाबनेके, पीनेके, चाटने के योग्य जो पदार्थ हैं वह शरीर के किस स्थान में प्राप्त होते हैं यह हे धीर ! हम आपसे पूँछते हैं कृपाकर आप कथन कीजिये । इस प्रकार अग्निवेश आदि शिष्यों के पूंछनेपर भगवान् पुनर्वसुजी कथन करने लगे कि जिस जगह आहार परिपाकको प्राप्त होता हैं वह तुम सबसे कथन करता हूं ॥ २२ ॥ ३३ ॥
आहारपचनेका स्थान ।
नाभिस्तनान्तरंजन्तोरामाशयइतिस्मृतः । अशितंखादितंपीतंलीढञ्चानविपच्यते ॥ २४ ॥ आमाशयगतः पाकमाहारःप्राप्यकेवलम् । पक्वः सर्वाशयः पश्चाद्धमनीभिः प्रपद्यते ॥ २५ ॥ मनुष्य के नाभि और स्तनके बीच में अर्थात् नाभिसे ऊपर और छाती से नीचे