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(५२६) चरकसंहिता-भा० टी०। विगुणेष्वपितुखलुएतेषुजनपदोद्ध्वंसनकरेषुभावेषुभेषजेनोपपाद्यमानानांनभयंभवतिरोगेभ्यइति ॥११॥ जब यह चारों भाव बिगडकर जनपदकाउध्वंसन करते हुए रोगोंको उत्पन्न करते हैं उस समय भी विधियुक्त संस्कार करीहुई औषधियोंका उपयोग जिन मनुष्यों को कियाजाताहै उन मनुष्योंको जनपदोध्वंसनकारक रोगोंका भय नहीं होता ॥११॥
भवन्तिचात्र । वैगुण्यमुपपन्नानांदेशकालानिलाम्भसाम् । गरीयस्त्वविशेषणहेतुमत्संप्रवक्ष्यते ॥ १२॥ यहांपर कहाहै कि देश, काल, वायु, जल इनका विकृत होजाना रोगोंके उत्पन्न करनेके लिये एक बडा भारी कारण होताहै ॥ १२ ॥
वाताजलंजलादेशंदेशात्कालंस्वभावतः॥ . .
विद्यादुष्परिहार्यत्वाद्रीयस्तरमवत् ॥१३॥ वायुसे जल, जलसे देश और देशसे काल स्वभावसे ही दुर्निवार और अधिक रोगोत्पादक होते हैं ॥ १३ ॥
वाय्वादिषुयथोक्तानांदोषाणान्तुविशेषवित् ।
प्रतीकारस्यसौकय्यविद्याल्लाघवलक्षणम् ॥ १४ ॥ वायु आदिक चारों भावोंके दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला और वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषोंकी विशेषताको जाननेवाला वैद्य उन रोगोंका प्रतिकार करते हुए उनके लक्षणोंके हल्केपन मादिको जाने । अथवा यों कहिये कि इन चारों भावोंमें जलसे वायु, देशसे जल और कालसे देश रोगोत्पादक हेतुओंमें हल्के मानना चाहिये ॥ १४ ।।
___ जनपदोध्वंसकारी भावोंकी चिकित्सा । चतुष्वपितुदुष्टेषुकालान्तेषुयदानराः।
भेषजेनोपपाद्यन्तेनभवन्त्यातुरास्तदा ।। १५॥ जब चारों भाव बिगडकर देशको नष्ट करनेके लिये प्रपन्न होतेहैं अर्थात् वायु, जल, देश और काल यह चारों बिगडकर जब देशको नष्ट करते हैं तब जिन मनु'ष्योंको विधिवत् औषधियोंका प्रयोग करा दियागया है अथवा कराया जाता है वह मनुष्य व्याधियोंसे पीडित नहीं होते ॥ १५ ॥ ___ येषांनमृत्युसामान्यसामान्यनचकर्मणाम् ।
कर्मपञ्चविधतेषांभेषजंपरमुच्यते ॥ १६ ॥