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(५१८) चरकसंहिता-भा० टी०।
दन्नपानमनिलप्रपीडितंश्लेष्मणाचविबद्धमार्गमतिमात्रप्रलीनमलसत्त्वान्नबहिर्मुखीभवति । ततश्छर्यतीसारवानिआमप्रदोषलिङ्गानिअभिदर्शयतिअतिमात्राणि । अतिमात्रप्रदुष्टाश्चदोषाःप्रदुष्टामबद्धमार्गास्तिर्यग्गच्छन्तःकदाचित्केवलमे. वास्यशरीरंदण्डवत्स्तम्भयन्तिाततस्तमलसकमसाध्यंब्रुवत॥१४॥ अब अलसकका वर्णन करते हैं-अल्प अग्निवाला और वढेहुए कफवाला दुर्वल मनुष्य जब मल आदि वेगोंको रोकता है तथा कठोर,मारी, अधिक,रूक्ष, शीतल एवम् शुष्क अन्नपानका सेवन करताहै तो उस मनुष्यके शरीरमें वह अन्नपान-वायुसे पीडित होकर कफसे विबद्धमार्ग होकर घिरजाता है और मूच्छित तथा अलंसीभूत होकर देहसे बाहर नहीं निकल सकता। वह छर्दी और दस्तके सिवाय और संपूर्ण आमके दोषोंके लक्षणों से युक्त होताहै । फिर अत्यन्त कोपको प्राप्तहुए दोष दुष्टहुए तथा बद्धमार्ग हुए तिरछा गमन करते हैं । कभी उसके शरीरको दण्डक समान स्तम्भन कर देते हैं । इस रोगको अलसकरोग कहतेहैं । यह रोग असाध्या,
आम विषका वर्णन । विरुद्धाध्यशनाजीशनशालिनःपुनरेवदोषमामविषमित्याचक्षतेभिषजोविषसहशलिङ्गत्वात्, तत्परमसाध्यमाशुकारित्वात,विरुद्धोपक्रमत्वाचेति ॥ १५॥ विरुद्ध भोजन करनेवाले और अधिक भोजन करनेवाले तथा अंजीर्णमें भोजन करनेवाले मनुष्योंके शरीरमें जो आमदोष होताहै वैद्यलोग उसको आमविष कहते हैं। क्योंकि यह आमविषके समान शीघ्र मारकलक्षणवाला होताहै । यह रोग शीघ्र नाशकरनेवाला होनेसे तथा चिकित्सामें विरोध पडनसे यह विषके समान असाध्य होताहै ॥ १६ ॥
साध्य आमकी चिकित्सा। तत्रसाध्यमामंप्रदुष्टमलसीभूतमुल्लेखयेदादौपाययित्वालवणमुष्णञ्चवारि । ततःस्वेदनवर्तिप्रणिधानाभ्यामुपाचरेदुपवासयेचैनम् ॥ १६॥ यदि उस अलसक रोगमें वह दुष्ट आम अलसीभूत हुई कुंछ साध्य प्रतीत हो सो उस आमको नमक और गरमजल पिलाकर वमन द्वारा दोषको निकाल दे।