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चरकसंहिता-भा० टी०। अर्थात पवित्रस्थानमें भोजन करना चाहियोपवित्रस्थानमें भोजन करनेवाले मनुष्यको दुष्टस्थानजनित मनमें ग्लानि आदि उत्पन्न नहीं होती। इसलिये वांछित स्थानमें मनको प्यारे लगनेवाले, उत्तम उपकरणोंके सहित भोजन करे ॥ ३२॥
नातिद्रुतभोजनके गुण। नातिद्रुतमश्नीयात्।अतिदूतं हि सुझानस्यउत्स्नेहनमवसदनंभोजनस्याप्रतिष्ठानम् । भोज्यदोषलाद्गुण्योपलब्धिश्चन नियता । तस्मान्नातिद्रुतमश्नीयात् ॥३३॥
अत्यन्त जल्दी भोजन नहीं करना चाहिये । अत्यन्त जल्दी भोजन करनेसे शररिके स्नेहकी ऊर्ध्वगति, देहका रहनाना एवम् किया हुआ आहार यथोचित रीतिपर अपने स्थानमें नहीं पहुंच सकता और जो भोजन किया जाय उसका यथोचित दोष, गुण प्रतीत नहीं होसकता इसलिये भोजनको अत्यन्त शीघ्र नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥
नातिविलम्वित भोजनके गुण । नातिविलम्बितमश्नीयावा अतिविलम्बितहिभुञानोनतृप्तिमधिगच्छतिबहुभुंक्तशीतीभवतिचाहारजातीवषमपाकञ्चभव. ति तस्मान्नातिविलम्बितमश्नीयात् ॥ ३४॥ बहुत देरमें भी भोजन नहीं करना चाहिये । बहुत देरमें भोजन करनेसे मनुष्याः वृप्तिको प्राप्त नहीं होता। और बहुत भोजन करता है एवम् भोजनके पदार्थ शीतल होजाते हैं तथा आहारका विषम परिपाक होताहै इसलिये अधिक देरमें भोजन नहीं करना चाहिये ॥ ३४॥
मौनसे भोजनके गुण । ' ' अजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीता जल्पतोहसतोऽन्यमनसोवाभुञानस्यतएवहिदोषाभवन्तियएवाति तमश्नतः। तस्मादजल्पन्नहसंस्तन्मनाभुञ्जीत ॥३५॥ . . . भोजन करते हुए-हंसना और वहुत बोलना नहीं चाहिये । तथा भोजनमें चित्त लगाकर भोजन करना चाहिये । हंसते हुए और बोलते हुए तथा दूसरी जगह चित्त लगाकर भोजन करनेसे जो अवगुण बहुत शीघ्र भोजन करनेसे होतेहैं सोई. इनमें भी होतेहैं। इसलिये चुपचाप हास्य रहित भोजनमें चित्त लगा भोजन करना चाहिये ॥३५॥