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(५१०) चरकसंहिता-भा० टीः ।
उष्णभोजनके गुण । तस्यसाद्गुण्यमुपदेक्ष्यामः । उष्णमनीयादुष्णंहिभुज्यमानंस्वदतेमुक्तञ्चाग्निमुदीर्यमुदीरयति। क्षिप्रञ्चजरांगच्छति, वातञ्चानुलोमयति, श्लेष्माणञ्चपरिशोषयतितस्मादुष्णमनीयात् ॥ २७॥ उस भोजनके विधिवत् किये जानेसे जो उत्तम गुण होते हैं उनका वर्णन करते हैं। भोजन सदैव ताजा और गर्म करना चाहिये। क्योंकि उस आहारमें स्वादुशक्ति उत्तम रहती है एवंम् उससे अग्नि चैतन्य होकर आहारको पाचन करती है। और वह आहार शाघ्र जर्णि होजाताहै । गर्म आहारके भाजन करनेसे वायुका अनुलोम होताहै और कफका परिशोषण होताहै । इसलिये गर्म आहारका ही सेवन · करना चाहिये ॥ २७ ॥
स्निग्धभोजनके गुण । स्निग्धमश्नीयात् । स्निग्धहिभुज्यमानस्वदते । भुक्ताश्चाग्निमुदीरयतिक्षिप्रंजरांगच्छतिवातमनुलोमयतिदृढीकरोति । शरीरोपचयं बलांभिवृदिञ्चोपजनयति, वर्णप्रसादमपिचाभिनिवर्तयति । तस्मात् स्निग्धमश्नीयात् ॥ २८॥ भोजन सदैव चिकना करना चाहिये। चिकने पदार्थोंका स्वादु उत्तम होताहै। और भोजन कियजानेपर अग्निको बलवान् करताहै । तथा वायुको अनुलोमन करताहै । एवम् शरीरको दृढ तथा पुष्ट करताहै और वलकी वृद्धिको उत्पन्न करता है । वर्णको प्रसन्न करताहै इसलिये आहारको घृतयुक्त कर खाना चाहिये ॥ २८ ॥
मात्रावत्भोजनका गुण। मात्रावदश्नीयात् । मात्रावद्धिभुक्तं वातपित्तकफानप्रपीडयदायुरेवविवर्द्धयतिकेवलंसखसम्यक्पक्वविड्भूतंगदमनुपथ्र्योत नचोष्माणमुपहन्तिअव्यथञ्चपरिपाकमेति । तस्मान्मात्रावदश्नीयात् ॥ २९॥ भोजन सदैव परिमाणसे करना चाहिये । परिमाणसे कियाहुआ भोजन वात पित्त, कफको साम्यावस्थामें रखताहुआ आयुको बढाता है। और मुखपूर्वक पाचन होजाताहै । इसका मलभाग मलस्थान द्वारा यथोचित रीतिसे निकल जाताहै जठ