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निदानस्थान - अ०८. -
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तीनों दोषोंके लक्षणोंयुक्त अपस्मारको सान्निपातिक जानना । सन्निपातकेअपस्मारको असाध्य कथन करते हैं । इस प्रकार अपस्मारके चार भेद होते हैं । इन चारों प्रकारके अपस्मार होनेमें कोई भी आगन्तुक कारण अवश्य होता है । जिसका विषय चिकित्सा स्थानमें कथन किया जायगा । उस आगन्तुज अपस्मारको अन्य | अपस्मारोंके कथन किये हुए लक्षणोंसे विशेष लक्षणोंवाला तथा विशेषरूपसे प्रगट होनेवाला और दोषोंके लक्षणोंसे विचित्र लक्षणोंवाला होनेस जान लेना चाहिये । कि यह आगन्तुन अपस्मार है । इस प्रकार अपस्मारोंके लक्षणों को जानकर उनमें हित तथा तीक्ष्ण उपशमनों द्वारा चिकित्सा करनी चाहिये । आगन्तुज लक्षणके अनुबंध होनेपर मंत्रादिकोंसे शान्ति करनी चाहिये ॥ ८ ॥ रोगों की उत्पत्ति |
तस्मिन्नहिदक्षाध्वरोद्धंसे देहिनांनानादिक्षुविद्रवतामतिसरणपुवनलडनायैर्देहविक्षोभणैः पुरागुल्मोत्पत्तिरभूद्धवि प्राशान्मेहकुष्ठानांभयत्रासशोकैरुन्मादानांविविधभूताशुचिसंस्पर्शादपस्माराणाम् ॥ ९ ॥ ज्वरस्तुमहेश्वरललाटप्रभवः । तत्सन्तापाद्रक्तपित्तमतिव्यवायात् पुनर्नक्षत्रराजस्यराजयक्ष्मेति ॥ १० ॥ उस दक्षयज्ञकेही नष्ट होनेके समय जब महादेवके भयसे दशदिशाओंमें यज्ञस्थ मनुष्य भागने लगे और इधर उधर उछलना, कूदना, आदि देहका विक्षेप करत हुए भागने लगे तब उनके शरीर में पहिले गुल्म रोग उत्पन्न हुआ और उसी यज्ञमें अत्यन्त घृतके खाने से प्रमेह और कुष्ठ रोगकी उत्पत्ति हुई तथा तप और उपवास एवम शोक से उन्मादों की उत्पत्ति हुई। उसी यज्ञके नष्ट होते समय भूत गणादिकों के स्पर्शसे अपस्माररोग पैदा हुआ । और महादेवके मस्तक ज्वर उत्पन्न हुआ । उसके संतापसे रक्तपित्त उत्पन्न हुआ । एवम् मैथुन के प्रभावसे चन्द्रमाके शरीरमें : राजयक्ष्मा पैदा हुअ' ॥ ९ ॥ १० ॥
तत्रश्लोकाः ।
अपस्मरतिवातेनपित्तेनचकफेनच ।
चतुर्थः संन्निपातेनप्रत्याख्येयस्तथाविधः ॥ ११ ॥
यहांपर श्लोक कहे हैं कि अपस्माररोग वातसे, पित्तसे, कफसे और सन्निपातसे इन चार भेदों से कहा गया है । इन अपस्मारें में सन्निपात जनित अपस्मार असाध्य है तथा अन्य तीन प्रकारके अपस्मार साध्य हैं ॥ ११ ॥