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(१९२) चरकसंहिता-भा० टी०। मास्फालयन्तं च भूमिहरितहारिद्रताम्रनखनयनवदनत्वचं रुधिरोक्षितोयभैरवप्रदीप्तरुषितरूपदार्शनं पित्तलानुपशयंविपरीतोपशयं पित्तेनापस्मारितविद्यात् ॥६॥ पित्तके अपस्मारमें निरन्तर अपस्मार रोगका होना क्षण २ पर होश आजाना, कण्ठसे कील्हनेकासा शब्द करना, हाथपैरोंको इधर उधर भूमिमें पटकना, नेत्र, नख, मुख, त्वचा इन सबका वर्ण हरा पीला तथा ताम्रवर्णका होना और उस मनुष्यको स्वममें अथवा अपस्मार रोग होनेके समय रक्तसे भरेहुए उग्र भयानक प्रकाशयुक्त, क्रोधित रूपोंका देखना तथा पित्तकारक द्रव्योंसे रोगका वढना एवम् पिचनाशक द्रव्योंसे शान्त होना।यह सब लक्षण पित्तजनित अपस्मारमें होतेहैं॥६॥
कफज अपस्मारके लक्षण । चिरादपस्मरन्तचिराच्चसंज्ञांप्रतिलभमानपतन्तसनतिविकृत
चेष्टलालामुद्वमन्तंशुक्लनखनयनवदनत्वचंशुक्लागुरुस्निग्धरूपदार्शनंश्लेष्मलानुपशयविपरीतोपशयंश्लेष्मणापस्मारितविद्या
त् ॥ ७॥ F- जिस अपस्माररोगमें देरदेरमें बेहोशी हो और देरमें ही संज्ञा प्राप्त हो पृथ्वीपर गिरते ही अत्यन्त विकृत चेष्टा न हो, मुखसे लार गिरतीहो, नख, नेत्र, मुख,त्वचा यह सब सफेद हों, रोगके समय श्वेत और भारीरूप दिखाई देतेहों अथवा सब वस्तुयें सफेद और भारी दीखती हों कफकारक वस्तुओंसे रोगकी वृद्धि हो और कफनाशक पदार्थोंसे शान्ति होतीहो । इन लक्षणोंसे युक्त अपस्मारको कफजनित अपस्मार जानना ॥७॥
सानिपातिक अपस्मारके लक्षण । समवेतसलिंगमपस्मारंसान्निपातिकविद्यात् । तमसाध्यमाचक्षते । इतिचत्वारोऽपस्माराः। तेषामागन्तुरनुबन्धोभवत्येव । कदाचित्सउत्तरकालमुपदेक्ष्यते । तस्यविशेषविज्ञानंयथाक्तैः लिङ्गलिङ्गाधिक्यमदोषलिंगानुरूपंकिञ्चिद्धितंतत्तुअपस्मारिभ्यस्तीक्ष्णानिचैवलंशोधनानिउपशमनानियथास्वमन्त्रादीनिचागन्तुसंयोगे॥८॥